मंगलवार, 2 अप्रैल 2013

मरीना समुद्र-तट


अवसाद के क्षणों में लिखी एक कठिन कविता

मरीना समुद्र-तट
(सुलक्षणा के लिए)

वर्षों पहले वे आये थे। एक साथ। साथ रहने के
संकल्प से बँधे। सतर्कता से पहचानने का प्रयास
करते एक-दूसरे की भिन्नताओं को। अभिन्न होने की
सदिच्छा से। 

तब भी यही समुद्र था। इसी तरह
पछाड़ें खाता। हरहराता। व्याकुल। जैसे पटक रहा हो
कोई फणिधर अपना सिर, पृथ्वी को परास्त करने
की विफलता पर खीझ कर।

समुद्र की लहरों भीगी
यही रेत थी जिस पर अंकित किये थे अपने
पद-चिह्न उन्होंने, सोचते हुए कि समुद्र कुछ ही क्षणों
में सप्रयास मिटा देगा उनकी उपस्थिति। ऐसा ही
हुआ। मगर अंकित रहे आये वे पद-चिह्न उनकी
स्मृति में। अधिक स्थायी। लगभग शाश्वत।

एक पंक्ति में चलते हुए वे पद-चिह्न 
कब विलग हुए। कोई नहीं जानता। 
वे स्वयं तो बिलकुल नहीं। शायद यह
उनके भीतर का समुद्र था। क्रुद्ध। लगातार उनके
अन्तरतट पर अपना विक्षुब्ध फन पटकता। व्याकुल
जो सफल हुआ।

अब सान्ध्य बेला में सुदूर समुद्र
तट पर टहलता है एकाकी सहचर। खोजता हुआ
विलीन हुई पद-चिह्नों की वह जोड़ी जो बची नहीं
स्मृति में भी।

मद्रास, मार्च 2000

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