मंगलवार, 30 अप्रैल 2013

अंतर-राष्ट्रीय मजदूर दिवस



ईश मिश्र 
उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्ध में दृढ हो रहा था जब जर का निजाम
जानलेवा होता जा रहा था मेहनतकश का जी-तोड़ काम 
शुरू किया सोचना जब मिलकर मजदूर सारा 
समझ गया कि धोखा है स्वतन्त्रता-समानता-एकता का नारा
किया जब उसने अपने हक की लड़ाई का आगाज 
दहल गया था जरदारों का पूरा समाज
साम्यवाद के भूत से पीड़ित था जब यूरोप सारा
दिया मार्क्स-एंगेल्स ने दुनिया के मजदूरों की एकता का नारा

मजदूरों के फर्स्ट इन्टरनेसनल ने भरा इसमें रंग 
१८८६ में सिकागो के मजदूरों ने किया यह नारा बुलंद 
हो गए हाकिम पुलिस के साथ सारे जरदार गोलबंद 
मजदूर ने कहा कि वह भी इंसान है
जर्दारों की शान-ओ-शौकत में भरता वही जान है
रोक दे वह हाथ तो रुक जाए दुनिया का गति विज्ञान
श्रम ही रहा है इतिहास का मूलभूत कमान 
कर नहीं सकता वह २४ घंटे काम 
उसे भी चाहिए मनोरंजन और विश्राम 
गूँज उठा नारा दिन में आठ घंठे काम का 
बाकी वक़्त पर हक है खुद का आवाम का 
उमड़ पडा जब हे-मार्किट में मजदूरों का जन सैलाब
गोली बारूद पुलिस की होने लगी बेताब 
देख निहत्थे मजदूरों की ऐसी ताकत 
झोंक दिया पुलिस ने काफी गोली बारूद 
कई मजदूर हो गए थे शहीद इस इन्किलाबी जंग में 
क्रांति का फरारा मिल गया उनके लाल खून के रंग में 
शहादतें कभी नहीं जातीं बेकार 
सालों बाद हुआ उनका आठ घंटे काम का सपना साकार

मनाई जा रही थी १८८९ में जब फ्रांसीसी क्रान्ति की शताब्दी
मजदूरों के सेकण्ड इंटरनेसनल ने पहली कांग्रेस आयोजित की 
इस कांग्रेस ने सिकागो संघर्ष का संज्ञान लिया
याद में इसके १९९० से अंतरराष्ट्रीय प्रदर्शन का प्रस्ताव दिया
१९९१ में जब हुई सेकण्ड इंटरनेसनल की दूसरी कांग्रेस 
मुद्दा सिकागो की लड़ाई का फिर से हुआ पेश 
हुआ फैसला हर साल मनाने को सिकागो की शहादत 
मई दिवस के मिली मजदूरों के अंतराष्ट्रीय दिवस की इज्ज़त 
१८९४ के मई में हुआ मजदूरों का उग्र प्रदर्शन 
१९०४ में दिखी अद्भुत मजदूर एकता 
एक हो गए ट्रेड यूनियनों के साथ सारे क्रांतिकारी नेता 
बुलंद किया नारा फिर से आठ घंटे के काम का अधिकार 
गूँज उठा था इस नारे से सारा संसार 
तब से मनाया जाता है मई दिवस
नव उदारवाद में दिखता मजदूर और भी विवश 
करना पडेगा बुलंद मजदूर एकता के नारे भूमंडल के स्तर पर 
हो गया है क्योंकि शोषण और पूंजी का भूमंडलीय चरित्र 

इन्किलाब जिन्दाबाद
मजदूर एकता जिंदाबाद 
[ईमि/०१.०५.२०१३]

मैं वह औरत हूँ


I am that woman: Evita Velvet
अनुवाद : खुर्शीद अनवर 

मैं वह औरत हूँ
मैं वह औरत हूँ जिसे बर्दाश्त न कर पाओगे
मैं वह औरत हूँ जुदा जिस से न हो पाओगे
मैं वह औरत हूँ हिला दे जो दिमागों की रगें
मैं वह औरत हूँ जो मजबूर मुहब्बत को करे
मैं वह औरत हूँ जो इस तरह तुम्हे तड़पा दे
अपना ही नाम तुम्हे ज़ेहन में भी आ न सके
तेरी माँ प्यार करे देखे मुझे तारों में
मैं वह औरत हूँ जो हंसी भर दे तेरे यारों में
मैं वह औरत हूँ कि जो शब् भर तुम्हे मजबूर करे
बोलते रहने को हर लम्हा कभी जो कह दे
मैं वह औरत हूँ जो चाहे तो बदहवास हो तुम
मैं वह औरत हूँ जो दीवाना बना कर रख दे
मैं वह औरत हूँ कि जलवों से तुम्हे पिघला दे
मैं वह औरत हूँ जो हर काम तेरा बिसरा दे
सारा दिन जिस्म से तुम पीते रहो उसके जाम
किसी वहशी कि तरह जिस्म पे होकर कुर्बान
तुमको बेकाबू यूँ कर दे कि तड़प जाओ तुम
रूह को अपनी ही खुद ढूढ़ भी न पो तुम
तुमको मजबूर करे मान लो तुम अपनी शिकस्त
और उदासी में डुबो दे रहे वह दूर अगर
मैं वह औरत हूँ जो मिल जाऊं तो दीवाना बनो
मेरी रग रग में समा जाने का परवाना बनो
तुमको मजबूर करूँ बैठे रहो शब् को यूँ ही
मेरे चेहरे को निहारो मैं जो ख्वाबों में रहूँ
मैं वह औरत हूँ कि नफ़रत भी करो प्यार भी तुम
मैं वह औरत हूँ जिसे भूल सको? नामुमकिन

पाब्लो नेरुदा


पाब्लो नेरुदा 
अनुवाद: खुर्शीद अनवर 
सिर्फ यह है कि मुहब्बत है मुझे वर्ना मैं 
तेरा आशिक नहीं पर तुझसे मुहब्बत की है 
मैं सफ़र करता हूँ उल्फत का, फिर उल्फत के बिना 
इन्तेज़ार रहता है फिर उस टूटता है उसका सिरा 
दिल मेरा सर्द से आतिशज़दा हो जाता है 
तुझसे उल्फत है कि बस तेरा ही तो आशिक़ हूँ 
कभी नफ़रत की तरफ मुड़ता हूँ खुद तेरे लिए 
तेज़ नफ़रत जो मुझे ऐसे झुका देती है 
किस कदर इश्क है तुझसे यह बता देती है 
कहीं ऐसा तो नहीं तुझको बिना देखे और दीदार किये 
तुझमे मैं खोया हूँ नाबीना मोहब्बत को लिए 
है यह मुमकिन कि फ़ना कर दे जो मौसम आये 
जनवरी ज़ुल्म की किरणों से ही झुलसा जाये 
दास्ताँ का जो यह हिस्सा है महज़ मैं हूँ यहाँ 
जिसको मिट जाना है इस इश्क में इस बार ऐ जाँ
क्योंकि आशिक हूँ तेरा सिर्फ मुब्बत है तेरी 
आग हैं इश्क में और खून की गर्मी है मेरी

रविवार, 28 अप्रैल 2013

मुश्किल है अपना मेल प्रिये



बहुत कुछ कहती है, यह कविता.. जिनको कहती है वह सुन ही लेंगे...कभी कभी कुछ ऐसा भी..

मुश्किल है अपना मेल प्रिये
ये प्यार नहीं है खेल प्रिये
तुम एम.ए. फर्स्टर डिवीजन हो
मैं हुआ मैट्रिक फेल प्रिये
मुश्किल है अपना मेल प्रिये
ये प्यार नहीं है खेल प्रिये

तुम फौजी अफसर की बेटी
मैं तो किसान का बेटा हूं
तुम रबडी खीर मलाई हो
मैं तो सत्तू सपरेटा हूं
तुम ए.सी. घर में रहती हो
मैं पेड. के नीचे लेटा हूं
तुम नई मारूति लगती हो
मैं स्कूमटर लम्ब्रे टा हूं
इस तरह अगर हम छुप छुप कर
आपस में प्यामर बढाएंगे
तो एक रोज तेरे डैडी
अमरीश पुरी बन जाएंगे
सब हड्डी पसली तोड. मुझे
भिजवा देंगे वो जेल प्रिये
मुश्किल है अपना मेल प्रिये
ये प्यार नहीं है खेल प्रिये

पता नहीं तुम कैसे पीते हो



पता नहीं तुम कैसे पीते हो
कि सूख जाती हैं नदियां
गायब हो जाते हैं ताल-तलैया
बादल गुम हो जाते हैं
और तरसती रहती है सुबह
बूंद-बूंद ओस के लिए
हम ऐसे पीते हैं
फिर भी बहता रहता है दरिया
भरे रहते हैं समंदर
पता नहीं तुम कैसे पीते हो
कि सूख जाती हैं नदियां
गायब हो जाते हैं ताल-तलैया
बादल गुम हो जाते हैं
और तरसती रहती है सुबह
बूंद-बूंद ओस के लिए

Ken River in Banda / Bundelkhand....Month November 2012
courtesy : आस्था या नदियों को मारने की साजिश ?

फटता है ज्वाला मुखी



फटता है ज्वाला मुखी
गर्म टुकड़े की तेजाबी बारिश
विचलित कर देती है.
" जायज़ पैसे से इलाज करना।"
लड़ खडाती देह, लेकिन पुख्ता ज़बान से कहे
आपके शब्द नींद से जगा देते हैं!

अब्बी! आपकी परवरिश
इतनी कमज़ोर हरगिज़ नहीं कि
बाज़ार कर ले ईमान का अपहरण!

पता नहीं आप क्या कहना चाहते थे.
आपकी आँखों में ठहर गया पानी
हमें बार-बार डुबो जाता है!

एक मौक़ा मिला जिसे हम गंवा बैठे
आपको अपने साथ नहीं रख सके.

दुआएं पानी भर रही हैं!
मन्नत महज़ संज्ञा ही तो है!

पिता ! मन्नत यह भी थी कि
माँ सी मित्र के सात फेरे के बाद सात हज़ार बार नाचूँगा!

लेकिन शोक-नाच की थिरकन थमती ही नहीं!

वो घना बरगद तो तुम्हारे साथ ही गुम हुआ
चन्द शाख हैं,
उसे पल्लवित तुम्हारी बातें ही करेंगी
मगर धीरे-धीरे!

उसमें खिला फूल
सच, इन्साफ और संवेदना के होने पर
खिलखिलायेगा
इठलायेगी खुशबू
घर-आँगन, गलियारे में!

आज जब तुम्हारे कुर्ते ने जिस्म को छुआ
तुम्हारे अनीति के विरुद्ध प्रतिकार ने दहाड़ मारी

सारे कपडे भी तो तुमने पहले ही कर दिए थे दान
काबा से लाया अपना कफ़न भी तो दे दिया

डायरी में जहां-तहां गुदे शब्द
पैबंद लगे कुर्ते और फिजा में बिखरी
बातें तुम्हारी
मैं इस विरासत को किसी सोने जड़े संग्रहालय में क़ैद नहीं करूँगा
तुम्हारी यायावरी की तरह मुक्ताकाश दूंगा
नन्ही उँगलियों का स्पर्श उसे और पुनर्जीवित करेगा।

छत्तीसगढ़ के जंगलों की बयार को

तुमने झारखंड में सहेजा

नींद में कभी एकाध स्पर्श से मेरे जाग जाने वाले तुम

रांची में मेरी गोद में शिशु सा खर्राटे भरने लगे!

तुम्हारी पेशानी की तपिश मेरी रूह को बेज़ार करती है।



उन्हें कहाँ ढूंढू जिन्हें तुमने पढ़ाया

अब वे गाँव में भी तो नहीं होंगे!

छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश के कई गाँव में गया तो मैं भी

तुम्हारे कंधे पर सवार होकर .

बरसाती नदी को एक मटके के सहारे पार करना अब भी डरा देता है. 

लेकिन सूरज ढले जंगल को तीरगी को

भेदना अब भी मुझे रौशन करता है!

यह रौशनी हर उस अँधेरे के पार मुझे ले जाने का

दंभ नहीं भरती, एहसास मुकम्मल करती है।

( अब्बी यानी मेरे पिता अविभाजित मध्य प्रदेश में मलेरिया इन्स्पेक्टर रहे. हज़ारों गाँव का दौर किया। ड डीटी छिडकाव उनकी ज़िम्मेदारी रहि. शाम को वे गाँव के बच्चों को पढ़ाने बैठ जाते. वंचित को कॉपी-किताब भी देते. उन्हें याद करते हुए ..यह पंक्तियाँ।।एक अधूरी कविता का कच्चा ड्राफ्ट ही है ).
 

शुक्रवार, 26 अप्रैल 2013

अशोक रावत की ग़ज़लें


अशोक रावत की ग़ज़लें

उसके आँसुओं पे जब मेरी नज़र गई,
मेरी चेतना को तार- तार कर गई. 

अँधकार है कि बीत ही नहीं रहा,
रोशनी पता नहीं कहाँ ठहर गई. 

वो ही चिड़चिड़े मिज़ाज और उदासियाँ,
दोस्तो जहाँ - जहाँ मेरी नज़र गई. 

मुझको अपनी चाहतों पे ऐतबार था, 
उम्र उसकी राह देखते गुज़र गई. 

सिर्फ़ अपनी ख़्वाहिशों को जी रहे हैं लोग, 
ये गुमान भी कि ज़िंदगी सँवर गई. 

मेरे हर सवाल पर है उनको ऐतराज़ 
उनके फैसलों पे क्या कभी नज़र गई. 

ख़ुदकुशी का भी कोई असर नहीं हुआ, 
मीडिया में चाहे टाप पर ख़बर गई.

इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है


इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है
माँ बहुत गुस्से में होती है तो रो देती है

अभी जिन्दा है माँ मेरी , मुझे कुछ भी नहीं होगा
मैं जब घर से निकलता हूँ दुआ भी साथ चलती है

जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है
माँ दुआ करती हुई खवाब में आ जाती है

ऐ अँधेरे देख ले मुहं तेरा काला हो गया
माँ ने आँखें खोल दीं घर में उजाला हो गया

लबों पर उसके कभी बददुआ नहीं होती
बस एक माँ है जो मुझसे खफा नहीं होती

'मुनव्वर' माँ के आगे यूं कभी खुल कर नहीं रोना
जहाँ बुनियाद हो इतनी नमी अच्छी नहीं होती

किसी के हिस्से घर किसी के हिस्से में दुकां आयी
मैं घर में सबसे छोटा था मेरे हिस्से में माँ आयी

यूं तो जिन्दगी में बुलंदियों का मकाम छूआ
माँ ने जब गोद में लिया तो आसमान छूआ

एक लघु कविता अपने लिए :

-आनंद


एक लघु कविता अपने लिए :-
मैं इस देश का सबसे आम आदमी हूँ .........
मेरे ऊपर सरकार अरबों रुपये खर्च कर रही है ...
नेता मेरी चिंता में मरे जा रहे हैं, ......
पुलिस मेरी सुरक्षा में दिन रात एक किये दे
रही है .....
मेरी वजह से इस देश के अस्पताल ..
अदालतें,
यहाँ तक की जेल भी ठसाठस भरे रहते हैं....
मैं हर सड़क और रेल दुर्घटना का शिकार हूँ,
मैं हर घोटाले ...
हर भ्रष्टाचार का शिकार हूँ....
आप जहाँ देखेंगे वहां मुझे पा जायेंगे ...
हर समस्या की जड़ में मै ही हूँ ...
मैं इस देश का आम आदमी !!

मंगलवार, 23 अप्रैल 2013

सुनो, सुनाऊं, तुमको मैं इक, मोहक प्रेम कहानी,



सुनो, सुनाऊं, तुमको मैं इक, मोहक प्रेम कहानी, 
सागर से मिलने की खातिर, नदिया हुई दीवानी ...

कल कल करती, जरा न डरती, झटपट दौड़ी जाती, 
कितने ही तूफ़ान समेटे, सरपट दौड़ी जाती, 
नई डगर है, नया सफ़र है, फिर भी चल पड़ी है, 
तटबंधों को साथ लिए वो, धुन में निकल पड़ी है, 
शिलाओं ने रोका बहुत पर, उसने हार न मानी।। 
सागर से मिलने ...... 

सागर की लहरों ने पूछा, हम में मिल क्या पाओगी, 
मिट जायेगा नाम तुम्हारा, खारा जल कहलाओगी, 
नदिया बोली तुम क्या जानो, प्रेम लगन क्या होती है, 
खुद को खो कर प्रिय को पाना, प्रेम की नियति होती है।। 
जरा न बदली चाल नदी की , बदली नहीं रवानी .... 
सागर से मिलने ...... 

सोमवार, 22 अप्रैल 2013

अपनी असुरक्षा से



अपनी असुरक्षा से
यदि देश की सुरक्षा यही होती है
कि बिना जमीर होना जिंदगी के लिए शर्त बन जाये
आंख की पुतली में हां के सिवाय कोई भी शब्द
अश्लील हो
और मन बदकार पलों के सामने दंडवत झुका रहे
तो हमें देश की सुरक्षा से खतरा है.
हम तो देश को समझे थे घर-जैसी पवित्र चीज
जिसमें उमस नहीं होती
आदमी बरसते मेंह की गूंज की तरह गलियों में बहता है
गेहूं की बालियों की तरह खेतों में झूमता है
और आसमान की विशालता को अर्थ देता है
हम तो देश को समझे थे आलिंगन-जैसे एक एहसास का नाम
हम तो देश को समझते थे काम-जैसा कोई नशा
हम तो देश को समझते थे कुरबानी-सी वफा
लेकिन गर देश
आत्मा की बेगार का कोई कारखाना है
गर देश उल्लू बनने की प्रयोगशाला है
तो हमें उससे खतरा है
गर देश का अमन ऐसा होता है
कि कर्ज के पहाड़ों से फिसलते पत्थरों की तरह
टूटता रहे अस्तित्व हमारा
और तनख्वाहों के मुंह पर थूकती रहे
कीमतों की बेशर्म हंसी
कि अपने रक्त में नहाना ही तीर्थ का पुण्य हो
तो हमें अमन से खतरा है
गर देश की सुरक्षा को कुचल कर अमन को रंग चढ़ेगा
कि वीरता बस सरहदों पर मर कर परवान चढ़ेगी
कला का फूल बस राजा की खिड़की में ही खिलेगा
अक्ल, हुक्म के कुएं पर रहट की तरह ही धरती सींचेगी
तो हमें देश की सुरक्षा से खतरा है.

रविवार, 21 अप्रैल 2013

उठो सीता, शस्त्र उठाओ


उठो सीता, शस्त्र उठाओ
उठो सीता, शस्त्र उठाओ प्रज्ञा का
बुलंद करो नारे नारीवादी संज्ञा का 
तोड़ दो तुलसी की पति-परायण सीमाएं
काट डालो लक्ष्मनों की सीमांकन रेखाएं
जला दो रावणों की अशोक वाटिकाएं
समुद्र में ड़ाल दो रामों की अग्नि-परीक्षाएं
मांगे कोई राम गर धोबी की शिकायत का जवाब
तलब करो उससे १४ साल के जंगल में मंगल का हिसाब
उठो सीता शस्त्र उठाओ अपनी प्रज्ञा का
भेद खोलो रामों की मर्दवादी, वर्णाश्रमी प्रतिज्ञा का
उठो सीता शस्त्र उठाओ और दो लक्ष्मनों पर तान
जुर्रत करे जो काटने की किसी सूर्पनखा के नाक-कान
[ईमि/०८.०१.२०१३]