अशोक रावत की ग़ज़लें
कुछ पता नहीं चलता क्या हुआ सवेरों का,
साम्राज्य फैला है दूर तक अँधेरों का.
कोई बचके जाये तो बोलिये कहाँ जाये,
मछलियों की दुनिया पर राज है मछेरों का.
इस तरह उजालों की मंज़िलें नहीं मिलतीं,
साधना तो सूरज की आचरण अँधेरों का.
न्याय भी बिकाऊ है, आज कल कचहरी में,
दंड बेक़सूरों को, काम सब लुटेरों का.
कोयले, अंगीठी और लालटेन, ट्राँजिस्टर,
एक शहर ये भी है, टीन के बसेरों का.
जिन की बीन की धुन पर नाचते थिरकते थे,
भाग्य लिख रहे हैं अब साँप उन सपेरों का.
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