शनिवार, 4 दिसंबर 2010

सांसद नामा -पीयूष पंत


हमने तो तनख्वाह बढ़वा ली,
जनता जाए भाड़ में।
भत्ता, सुविधा भी बढ़वा ली,
जनता जाए भाड़ में।
हम तो रहते मुफ+त मकान में,
जनता जाए भाड़ में।
हम तो करते मुफ+त में यात्रा,
जनता जाए भाड़ में।
बीबी को भी साथ घुमाते,
जनता जाए भाड़ में।
टेलीफोन का बिल नहीं देते,
जनता जाए भाड़ में।
फिर भी हम कहते कम मिलता,
जनता जाए भाड़ में।
हम खा जाएं पशु का चारा,
जनता जाए भाड़ में।
कर डालें टेलिकाॅम घोटाला,
जनता जाए भाड़ में।
हमने जल जंगल बिकवाई,
जनता जाए भाड़ में।
देश सुरक्षा गिरवी रख दी,
जनता जाए भाड़ में।
संसद में करते हंगामा,
जनता जाए भाड़ में।
माइक और कुरसी हम तोड़ें,
जनता जाए भाड़ में।
शून्यकाल चलने नहीं देते,
जनता जाए भाड़ में।
पांच लाख की गाड़ी में घूमें,
जनता जाए भाड़ में।
जे+ड-सुरक्षा में हम चलते,
जनता जाए भाड़ में।
लोकतंत्र की दें दुहाई,
जनता जाए भाड़ में।
नोट तंत्र की महिमा गाएं,
जनता जाए भाड़ में।
हम करवायें राशन की होर्डिंग
जनता जाए भाड़ में।
खूब बढ़ी अब तो मंहगाई,
जनता जाए भाड़ में।
हमने तो अपनी ही सुधाई,
जनता जाए भाड़ में।
अपनी तो कट रही मलाई,
जनता जाए भाड़ में।
-पीयूष पंत

शनिवार, 20 नवंबर 2010

लगा है पहरा हवेली में (अलोका )

यह कविता शाहिद अख्तर की लिखी कविता हवेली पर प्रतिक्रया हैं
लगा है पहरा हवेली में
तैनात हरा, गैरूवा झण्डे के संग
चारों ओर शब्दों की वार
जंग है किसी के दिल में
तो जूनन भी उसी के पास
दोनो है माटी के लाल
रंग लाल से हो रहा प्यार
सर जमीन के टुकडे
बांट रहे
उपरवाला के नाम
न वहां राम रहेगा
न रहीम
इंसानियत नहीं
राजनीति
बांट रहीं जमीन
लगा है पहरा आपकी हवेली पर 

जनसंख्या बढ़ा कि

 अलोका रांची 








जनसंख्या बढ़ा कि
जंगल पहाड़ उड़ा
काला रोड बढ़ा कि
जवानी उड़ी
गांव उड़ा।
कानून बना कि
बिरान खेत सुखा।
विकास बढ़ा कि
बस्ती टुटा
मनरेगा आया कि
झगड़ा बढ़ा
पूंजी बढ़ा कि
दिल्ली भागा।
नेता बना कि
गांव को बेचा

सोमवार, 1 नवंबर 2010

पानी

पानी
फरीद खां
खबर आई है कि कुएँ बंद किए जा रहे हैं,
जहाँ से गुज़रने वाला कोई भी राहगीर,
किसी से भी पानी माँग लिया करता था।

वैज्ञानिकों के दल ने बताया है,
कि इसमें आयरन की कमी है,
मिनिरलस का अभाव है,
बुखार होने का खतरा है।

अब इस कुएँ के पानी से,
सूर्य को अर्घ्य नहीं दिया जा सकेगा,
उठा देनी पड़ेगी रस्म गुड़ और पानी की।

सील कर दिये कुएँ,
रोक दी गई सिचाई।

सूखी धरती पर,
चिलचिलाती धूप में बैठी,
आँखें मिचमिचाते हुए अम्मा ने बताया,
चेहरे से उतर गया पानी,
नालियों में बह गया पानी,
आँखों का सूख गया पानी,
प्लास्टिक में बिक गया पानी।

शनिवार, 30 अक्तूबर 2010

झारखण्डी के आंखों से

अलोका 
झारखण्डी के आंखों से 
मै देखा हुं दर्द रे
विकास दूर नजर आए,
बड़ी दूर नजर आए
जब बैठी उनके साथ
मन में उसके सपने आए
एक गांव था सबके
ओ अब खोने लगा है।
वोट देकर
हाय सब कुछ लुटने लगा है।
इस सरकार के भरोसे पे
सब सूखने लगा है।
भूल के जब गांव रे
जाती हूं देखने
मर मर के जी रहे हैं।
लुट रहे जमीन जंगल को
दिन रात दुआ मांगे
आदिवासी सबके वास्ते
कभी अपनी उम्मोदांे का
फूल न मुरझाए
झारखण्ड जब से सरकार के
 रंगों मों रंगा है।
गांव गांव में जनता रोने लगी है।
सबके प्यार भरे सपने
कहीं ये व्यवस्था छिन न ले
मन दुखी हो जाए

शनिवार, 23 अक्तूबर 2010

खाली है एक हवेली

- शाहिद अख्‍तर

खाली है एक हवेली

बिना किसी किराये के

शर्त बस इतनी है
...
किरायेदार अच्‍छे हों

भाषा प्‍यार की बोलें

रहें सुकून से

अमन और शांति से

झगड़े करें जरूर

मगर विचारों के

तलवार चलाएं शौक से

कि कोई हर्ज नहीं इसमें

जंग की भी इजाजत है

बस ख्‍याल यह रखें

जंग तारीक ताकतों से करें

तो फिर से मैं अर्ज कर दूं

मेरे दोस्‍तो

इंतजार है किरायेदारों का

कि बहुत जगह है

दिल की इस बोसीदा सी हवेली में

- शाहिद अख्‍तर

शुक्रवार, 22 अक्तूबर 2010

वो शाम

Mutha Rakesh

बहुत देर से

लहरों पर उछलती

कभी पानी उपर

कभी पानी में

होती गयी मेरी आँखें

दूर पार

कही शायद

होगी वहां भी आँखें

तभी तो

मंत्रमुग्ध

हुई जाती है

वो शाम

रात होने से पहिले

मुक्तिबोध

पता नहीं,कब,कौन ,कहाँ ,किस ओर मिले,

किस साँझ मिले, किस सुबह मिले !!

यह राह ज़िंदगी की ,जिससे जिस जगह मिले

है ठीक वही ,बस वहीं अहाते मेंहदी के

जिनके भीतर

है कोई घर

बाहर प्रसन्न पीली कनेर

बरगद ऊँचा, ज़मीन गीली

मन जिन्हे देख कल्पना करेगा जाने क्या !!

---- मुक्तिबोध

मंगलवार, 19 अक्तूबर 2010

प्रिया

mirchi

त्योहार दशहरा का
उमंग आसमान पर थी।
मानों सारा संसार की ख़ुशी
प्रिया के दमन पर हो
वक्त और बाजार के बीच
नन्हीं सी प्रिया
पूजा के आनन्द के साथ
खिलौने की ओर
लग रहा था
बाजार में सजें नन्हें बच्चों के दुकान
उनके शो रूम की तरह थे।
बिक रहीं थी बंदूक
गाडि़यां, गुडिया बाजार से गायब थे
मिठाईया पंसद से
गायब हो गयी
चैमिन ने अपना धाक
प्रिया के जीवन में जमाया।




शनिवार, 16 अक्तूबर 2010

फैसला


मिर्ची

आज धुप में गर्माहट काम थी.
बहर के रस्ते पर
तेज और तेज गाड़िया चल रही थी
लोगो के चहरते पर
फैसला सुनने की चाहत
आपने काम का निपटारा का
तनाव
समय बीतने के साथ
रास्ते में हौर्न काम पद रहे थे
कई दुकानों की स्टार निचे आ रही थी
दुकानों के सामान दूर रखे जा रहे थे
एक ही समुदाय समूह में क़तर बनाये
आपने घर की और थे.
दुपहर का समय था.
फ़ोन पर सुचना
आपनो को लेने लगे थे
हर घर पर टीवी खुली हुई थी.
मेहनतकश को छोर
पूरी दुनिया टीवी के करीब था


शुक्रवार, 15 अक्तूबर 2010

हम बस्तर के आदिवासी : एक गीत


आज़ाद सक्सेना


हम बस्तर के आदिवासी
आओ तुम्हे हम गीत सुनाएं
जो बीती है हम पे
आज हम सब खुल के बताएं
जो बीती है हम पे

अरे जागो मेरे आदिवासी
ओ मेरे वन के निवासी
जब तक तुम नहीं जागोगे
अपना हक नहीं मांगोगे
कुछ भी नहीं है मिलने वाला

हम बस्तर के आदिवासी...

अरे हमारे नदी पे बांध बने हैं
पुल और मकान बने हैं
हमारे पास नहीं है रोटी
तन पे है सिर्फ लंगोटी
सारा प्रशासन डीलम डोल डिलम डोल

हम बस्तर के आदिवासी...

अरे हाकिम आया, अफसर आया
जो भी आया उसने लूटा
मुर्गा काटा, बकरा खाया
हम बस्तर के आदिवासी...

अरे पत्थर तोडा, रोड बनाया
हाकिम आया, अफसर आया
जो भी आया उसने लूटा
हम बस्तर के आदिवासी...

अरे स्कूल है पर मास्टर नहीं है
दवाखाना पर डाक्टर नहीं है
डाक्टर है तो दवाई नहीं है
मास्टर है तो पढाई नहीं है
सारा प्रशासन डीलम डोल

हम बस्तर के आदिवासी...

अरे जागो मेरे आदिवासी
ओ मेरे वन के निवासी

आज़ाद सक्सेना

गुरुवार, 14 अक्तूबर 2010

इंतजार की शाम

मिर्ची

पुरे देश मै
अमन,शांति के पीगम
पहुची जा रही है.
एकता अत्तुता पर मजबूती बनी जा रही थी.
राजनीती पार्ट हो या धार्मिक गुरु
हर अस्थान मै एकजुट
दिखी जा रही थी
इतना प्रेम. भएइचारा
सपने में नहीं था
कभी
गुमनाम फैसले पे
मीटिंग कर रहे थे सभी
इंतजार की शाम का.
थे


शनिवार, 2 अक्तूबर 2010

सागर

अंजू प्रसाद

तू सागर है.
समुद्र है.
दूर तक पानी ही पानी.
बस खारा पानी .
जो आँखों से निकलती है.
बीच सागर मे भी प्यासी.
प्यास नहीं बुझती पानी
चारों और सिर्फ पानी ही पानी.
बस खारा पानी

बुधवार, 29 सितंबर 2010

किरण

MIRCHI RANCHI

रिक्तम किरण से ज्यादा
छुती है मुझको तेरी आवाज
ळवा से ज्यादा स्र्प”ा
क्रती है तेरी “ाब्द
प्रेम से ज्यदा
.तेरे पास होने का
एहसास है मुझकों
.अपने हदय से ज्यादा
.तेरे भावनाओं का ख्याल है मुझे
चलते हो दूर कहीं
आहट् सुनाती है मुझे
पास होने पर
दुनिया से बेखबर होती हुं मैं
हर मुलाकात के बाद
खत्म नहीं होती इंतजार
आपकी
क”ती भरती संासों में
वहां तक छुं आने की तमन्ना है मेरी
वफा न किया
वेबफाई न हुई
दुर तलक संचार से
भावना को छुआ तुनें
यह उमंग थी या तन्हाई
छोनो को एहसास ही नहीं

शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

गुहामानव के भित्तिचित्र

रणेन्द्र
क्या ढूढ़ना चाहता हूँ इनमें
कौन सी नवीनता, अनूठापन
उन्होंने सिर्फ शिल्प बदले हैं
कथ्य नहीं बदले,

पूरी दुनिया के गुफा-भित्तिचित्रों के
पैटर्न एक से हैं
रेखांकनों में अनोखी एकरूपता

हथियार, शिकार
और उनकी घेराबन्दी,
काँधे लटके, रक्तसने शिकार

पर कहीं नहीं
टपके रक्त के दाग
न कोई आह! ना चीत्कार
इतिहास, शिकारियों की ही रचना है,

देश और काल
इन्हीं गुफाओं में कर रहे कदमताल,

फर्क सिर्फ इतना कि
गुहामानवों ने चमचमाती संज्ञाओं के
टाँग लिए टैग
कमर के वल्कल, मृगछाल के ऊपर
वर्दियाँ, पतलून, जिन्स, सुट, अगड़म-बगड़म
ड्रेस डिजाइनिंग नई संज्ञा है शायद
कि विशेषण, कि प्रदर्शन, कि छलावा,

दरअसल अँधेरी गुफा ही शाश्वत है
शाश्वत हैं, रक्तसने, काँधे लटके शिकार,

देश-काल के साथ
कदमताल करता गुहामानव
चतुर, होशियार
देता रहा हथियारों पर धार
उन पर चढ़ाता रहा
शहद के लेप पर लेप
गढ़ता रहा नये-नये टैग
पुनर्जागरण, ज्ञानोदय, आधुनिकता,

दरअसल, ये अँधेरी गुफाओें को
दिमाग की सुराख में
छुपाने की तरकीबें थीं

गैर कबिलाई, गन्दे गुलाम, घटिया नस्लें, छोटी जातियाँ,
बागी, विधर्मी, विद्रोही, नक्सली, सारी की सारी स्त्रियाँ
शिकारों की लम्बी होती गर्इं सूचियाँ

हाँका और घेरे के सात्विक सिद्धान्त
कब के स्थापित हो चुके


राज्य, धर्म, समाज, परिवार
सुविधा और हिस्सानुसार
भरपूर शिकार के लिए गढे+ गए
छोटे-बड़े घेरे हैं,

खून की धार जो बहती रही
सभ्यता नाम का खुजलाहा कुŸाा
आक्षितिज जिह्वा फैला, चाटता रहा
और संस्कृति
उसी की संगिनी
हड्डियों के ढ़ेर को चबा-चबा
धूल बनाती रही,

खाकी शिकारियों के काँधे की
काठ पर लटकी
बागी स्त्री की लाश,
शिकार के इस नये चित्र पर
अलग से कुछ नहीं कहना

माँ धरती की गोद में
कहीं कोई निष्कंटक कोना नहीं शेष

बस शेष है
धुँधला सा एक स्वप्न
तीलियाँ इक्कट्ठा करने की चाह।

रविवार, 29 अगस्त 2010

सावन में

प्रेम प्रकाsh

सावन में तुम तो
आये सजना
पर सावन में
आया नहीं सावन

ला£ों का सावन
मनभावन सावन

फूलों से
गायब है सावन
बागों से
गायब है सावन
गीतों से
गायब है सावन
£ेतों से
गायब है सावन
सावन मे

बिन सावन
कैसे गायें
कजरी सावन

मनभावन सावन
लुभावन सावन

किसने चुराया
ये सावन
कहाॅ छुपाया
ये सावन
जाओ.........!
जाओ.........!
मेरे साजन
ढ़ुॅढ़ के लाओ
ये सावन
छीन के लाओ
ये सावन
मनभावन सावन
लुभावन सावन
प्रेम प्रकाsh

शुक्रवार, 27 अगस्त 2010

जवां होती हसीं लड़कियां

शाहिद अख्तर


जवां होती हसीं लड़कियां


जवां होती हसीं लड़कियां
दिल के चरखे पर
ख्वाब बुनती हैं
हसीं सुलगते हुए ख्वाब !

तब आरिज़ गुलगूं होता है
हुस्न के तलबगार होते हैं
आंखों से मस्ती छलकती है
अलसाई सी खुद में खोई रहती हैं
गुनगुनाती हैं हर वक्त
जवां होती हसीं लड़कियां...

वक्त गुजरता है
चोर निगाहें अब भी टटोलती हैं।
जवानी की दहलीज लांघते उसके जिस्मो तन
अब ख्वाब तार-तार होते हैं ।
आंखें काटती हैं इंतजार की घडि़यां।

दिल की बस्ती वीरान होती है
और आंखों में सैलाब।
रुखसार पर ढलकता है
सदियों का इंतजार।
जवानी खोती हसीं लड़कियां...

जवां होती हसीं लड़कियां
काटती रह जाती हैं
दिल के चरखे पर
हसीं सपनों का फरेब ।

जवां होती हसीं लड़कियों के लिए
उनके हसीं सपनों के लिए
हसीं सब्ज पत्ते
दरकार होते हैं। - शाहिद अख्तर

शनिवार, 14 अगस्त 2010

भारत माता की जय बोलो

भारत माता की जय बोलो
अलोका
चाहे भूखे हो, चाहे नंगे
भारत माता की जय बोलो
बेरोजगारी हो, भुखमरी
जय की जय जय हो
भूखे पेट हो
बीमार, लाचार,
पूरी व्वस्था,
समानता की लड़ाई लड़,
जर से जमीं तक कर रहा
मिला हमें सिर्फ
भूख गरीबी, बेरोजगारी,
भूखा नंगा भारत
जय बोलो भारत माता की



जनता के नाम

-पीयूष पंत

मना लो तुम आजदी, फहरा लो तिरंगा
कौन जाने कल, अब क्या होगा,
जिस तरह हमारी अभिव्यक्ति पर
पहरा लगाया जा रहा है,
देश की गरिमा और अस्मिता को
विश्व बैंक के हाथों
नीलाम किया जा रहा है,
‘विकास’ के नाम पर गरीबों, मजदूरों
और किसानों का आशियाना
उजाड़ा जा रहा है,
और जाति-धर्म के नाम पर कौम को
आपस में लड़ाया जा रहा है,
उठो कि अब थाम लो हाथ में मशाल तुम!
बचा लो, बचा लो तिरंगे की ‘आन’ तुम!!

सोमवार, 26 जुलाई 2010

प्रियतम

इतवा मुंडा

शादी के रास्ते में बिछड़ गये

कमर हिला के चली थे तुम

बेनी गांठे हुए चमक रही थी

देखकर मोहित हुवा प्रियतम

मेरा मन तुमको पसंद किया

दिल के अन्दर खुशिया भर आई

मेरे चरणों को तुम धोई

जीवन साथी बनाने के लिए पर

मुर्गे की तरह प्रियतम तुमने

लात मर कर भगा दिए हमे
,

सीने के अन्दर मेरा प्राण जा रहा है
,

हमने लेबेद गांव गए थे, तो ,

तुम लकड़ी लेन के बहाने जंगल गई

प्यारी माँ ने मरे
पांव को धोये

सीने के अन्दर मेरे प्राण उड़ गया,

तुम्हे रत में सपनी में देखता हु,

दिन में तेरी याद में डूबा रहता हु,

खाना पीना छोड़ दिया हु,

पागल की तरह घूम रहा हु,

.हमारा राज्य अति सुन्दर

एतवा मुण्डा गरूडपिडी
मारा गांव - हमारा राज्य अति सुन्दर
स्वर्ण से भी दुगुणा,
ळमसब नहीं छोड़ेगे,
ज्ीवन के अंतिम संासां तक लडेंगे, पर
ळमलोग नहीं छोंडेे+गे।
ळमारे यहां सोना चांदी
लोहा, कोयला खनिलों का भण्डार है,
ळमलोग नहीं छोड़ेंगे।
काम@ काज मेहनत से करेंगे
हम सब नहीं छोडे+ंगे।
नदी के तराईयों मं सुन्दर खेत
सोना रूपा की भांति नृत्य आखाड़ा
हमलोग नहीं छोड़ेगे,
जंगल पहाड़ों से सभायमान है
हम नहीं छोडें+गे।
जबतक चांद सूरज रहेगा,
हमारी लड़ाई चलता रहेगा,
हमलोग नहीं छोड़ेगे।
जीविन के अंतिम सांसो तक लड़ेगे।
हम लोग नहीं छोड़ेगे।

शुक्रवार, 23 जुलाई 2010

अभी तो

 रणेन्द्र

शब्द सहेजने की कला
अर्थ की चमक, ध्वनि का सौन्दर्य
पंक्तियों में उनकी सही समुचित जगह
अष्टावक्र व्याकरण की दुरूह साधना
शास्त्रीय भाषा बरतने का शऊर
इस जीवन में तो कठिन

जीवन ही ठीक से जान लूँ अबकी बार

जीवन जिनके सबसे खालिस, सबसे सच्चे, पाक-साफ, अनछूए
श्रमजल में पल-पल नहा कर निखरते
अभी तो,
उनकी ही जगह
इन पंक्तियों में तलाशने को व्यग्र हूँ

अभी तो,
हत्यारे की हंसी से झरते हरसिंगार
की मादकता से मताए मीडिया के
आठों पहर शोर से गूँजता दिगन्त
हमें सूई की नोंक भर अवकाश देना नहीं चाहता

अभी तो,
राजपथ की
एक-एक ईंच सौन्दर्य सहजने
और बरतने की अद्भुत दमक से
चैंधियायी हुई हैं हमारी आँखें

अभी तो,
राजधानी के लाल सूर्ख होंठों के लरजने भर से
असंख्य जीवन, पंक्तियों से दूर छिटके जा रहे हैं

अभी तो,
जंगलों, पहाड़ों और खेतों को
एक आभासी कुरूक्षेत्र बनाने की तैयारी जोर पकड़ रही है

अभी तो,
राजपरिवारों और सुख्यात क्षत्रिय कुलकों के नहीं
वही भूमिहीन, लघु-सीमान्त किसानों के बेटों को
अलग-अलग रंग की बर्दियाँ पहना कर
एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा कर दिया गया है
लहू जो बह रहा है
उससे बस चन्द जोड़े हांेठ टहटह हो रहे हैं

अभी तो,
बस्तर की इन्द्रावती नदी पार कर गोदावरी की ओर बढ़ती
लम्बी सरल विरल काली रेखा है
जिसमें मुरिया, महारा, भैतरा, गड़बा, कोंड, गोंड
और महाश्वेता की हजारांे-हजार द्रौपदी संताल हैं
अभी तो,
जीवन सहेजने का हाहाकार है
बूढ़े सास-ससुर और चिरई-चुनमुन शिशुओं पर
फटे आँचल की छाँह है
जिसका एक टुकड़ा पति की छेद हुई छाती में
फँस कर छूट गया है

अभी तो,
तीन दिन-तीन रात अनवरत चलने से
तुम्बे से सूज गए पैरों की चीत्कार है
परसों दोपहर को निगले गए
मड़ुए की रोटी की रिक्तता है
फटी गमछी और मैली धोती के टुकड़े
बूढ़ों की फटी बिबाईयों के बहते खून रोकने में असमर्थ हैं
निढ़ाल होती देह है
किन्तु पिछुआती बारूदी गंध
गोदावरी पार ठेले जा रही है

अभी तो,
कविता से क्या-क्या उम्मीदे लगाये बैठा हूँ
वह गेहूँ की मोटी पुष्ट रोटी क्यों नही हो सकती
लथपथ तलवों के लिए मलहम
सूजे पैरों के लिए गर्म सरसों का तेल
और संजीवनी बूटी

अभी तो,
चाहता हूँ कविता द्रौपदी संताल की
घायल छातियों में लहू का सोता बन कर उतरे
और दूध की धार भी
ताकि नन्हे शिशु तो हुलस सकें

लेकिन सौन्दर्य के साधक, कलावन्त, विलायतपलट
सहेजना और बरतना ज्यादा बेहतर जानते हैं
सुचिन्तित-सुव्यवस्थित है शास्त्रीयता की परम्परा
अबाध रही है इतिहास में उनकी आवाजाही

अभी तो,
हमारी मासूम कोशिश है
कुचैले शब्दों की ढ़ाल ले
इतिहास के आभिजात्य पन्नों में
बेधड़क दाखिल हो जाएँ
द्रौपदी संताल, सी0के0 जानू, सत्यभामा शउरा
इरोम शर्मिला, दयामनी बारला और ..... और .....

गोरे पन्ने थोड़े सँवला जाएँ

अभी तो,
शब्दों को
रक्तरंजित पदचिन्हों पर थरथराते पैर रख
उँगली पकड़ चलने का अभ्यास करा रहा हूँ

सोमवार, 19 जुलाई 2010

ई मेल में तस्वीर

ई मेल में तस्वीर

पहले की बात और थी

हुआ करते थें

जब तुम्हारे तस्वीर दिल

रख याद करते थे

दिल से

दिल में दर्द लिए

गुजरता था वो पल सबका

हालात अपनी बदल दी

तस्वीर निकाल कर

ई मेल में रख दी।

अब

तुम्हे याद करने के लिए

जाने पड़ते है इंटरनेट कैफे


छेनी हथौडे की गिफ्तारी अलोका

छेनी हथौडे की गिफ्तारी

वो अपराध कई बार करता रहा।

.हजार बार करता रहा।

.कानून उसकी कुछ न करती।

.अपनी जुबान बंद कर

गुनहगार बनता रहा।

कई बार करता रहा।

मेरे लिखे



अलोका
मध्य में समंजित करें
“ाब्द पढ़े थे तुने

मन में उठी होगी कोई

क”ाक

बदले मे उद्ववेलित किया था

तुने वो “ाब्द

जिसके सहारे में लिखने लगी थी

प्रेरणा के कविता

उस कविता से

गुजरेगी तुम्हारी निगाहे

हर “ाब्द तुमसे लेेगा बदला

यह सोच कर कि एक पल

आएगा हमारा

दिल और दिमाग में

जब छाएगा वह प्यार

तुम भूल चुके हो तब तक

जब “ाब्दों की प्रवाह से

मैं देती रहूगी तूझे अहसास

शनिवार, 17 जुलाई 2010

चाह और विदाई (अलोका)

चाह और विदाई
कैसा संयोग कि
तुम मुझे दिखते रहें
कई बात करती रहीं
दिल न भरा था
बात का सिलसिला
बनता गया
दिल में क”ाक के साथ
एक पल के लिए
न जाने रि”ता पूरा
पर अनजान बन गया।

व्यथाः मेरी

.अलोका
इतनी व्यस्तता में
व्यथा मेरी तू न सुनता तो
और कौन सुनता
कई बार को”िा”ा की
अपने मन की बातें
तुझसे कहने को
तुम्हारी व्यस्तता ने
दिल से दिल की बात
दरकिनार कर दिया।
त्ुाझे सुनाने की चाहत लिए
विदा हो गयी
तुमसे और तुम्हारे “ाहर से

हां मैने चाहा था

02. 06.10 अलोका
. लम्बे दिनों के बाद
.चाह रहीं थी बातें करना।
.गिले ”िाकवे दूर करना
. समय और समझदारी ने
.ऐसा होने नहीं दिया।
.मेरी तमन्ना थी
एक पल कुछ बोल तो दूं।
पब्लिक और प्रेस ने
ऐसा होने नहीं दिया।
.मेरा एकलौता मन
कुछ बाते करना चाह रहा।
आपकी बेचैनी और काम ने
ऐसा होने नहीं दिया।
.दिन ढलता रहा
हम करीब थे।
पर ”िाकायत सुनने का मौका न दिया।
हां मैने चाहा था
पूरा पल आपके पास रहूं
तुमनेे मुझे छूने का मौका ही नहीं दिया।

ये लम्हा बीता मेरा

.अलोका
29.06.10

चली थी, मन में
लिए गुस्सा और प्यार दोनो
तब तक
जब तक
न देखी थी मैं तुझे
न थी मन में चाहत उस वक्त तक
.रखी थी सोच कर दिल में
.न मिलूंगी तूझसे

जाने अनजाने
. हो गयी मुलाकात
. किसी मोड़ पर
. थम गया था दिल मेरा
. कुछ देर तक
. और फिर
. मिलने की चाहत दिल को तड़पाने लगी
. वो दिन एहसास
. एक -एक पल
. मेरे लिए थम सा गया।
. बिना सोचे चल दी
. पर
. मेरी निगाहे पूरे रास्ते
. तुझे तला”ाती रही।
. आंखों की तला”ाी के साथ
. दिल बेवाक् बैचन हो गया।
. आपने साथ के साथी के रास्ते
. भी खो दिया
. मन की बैचनी को थामने
. चली गयी उस देहरी तक
. जहां एक सनाटा भरा था।
. निरा”ा निगाहे
. व
. वापसी कदम
. देहरी पार करते ही
. उसका फोन आया
. इंतजार तो कर ले-की बात कह डाला।
. मै इस इतजांत को पल पल जी रही थी।
. उनसे मिलने की तड़प बढ़ रही थी।
. नहीं पता कि उस ओर मैं खींचे
. क्यों जा रही थी?

शनिवार, 12 जून 2010

चिनगारी पुरस्कार के लिए बधाई ‘ बिरसा सेना’’

एतवा मुण्डा
गरूड़पीड़ी
जल- जंगल और जमीन।
पुरखों के धरोहर की रक्षार्थ।।
दया और निडरता।
संंघर्’ा से भरा जीवन,।।
बहती हुई नदी की,।।
विधमान पत्थर की तरह।
सीना तान कर खड़ी।।
अग्नि के तुफान की भांति।
दु”मनों पर बरसने वाली।।
बिरसा मुण्डा के सपनों की।
झारखण्ड की बेटी।।
मकी, दवमनी, फूलो- झानों।
क्ी परचम लहराने वाली।।
ठनकी पवित्र आंचल में।
झारखण्ड की आस्तित्व।।
संास्कृतिक पहचान चिन्ह।
विरासत बांधी हुई हैं,।।
लाखों धमकियों के बाद भी।
घायल “ोरनी की भांति।।
दहाड़ती हुई आगे बढ़ने वाली।
संघर्’ा की चिनगारी।।
दयामनी बारला झारखण्ड की।।
बेटी की बिरसा सेना का।।
लाखों लाख बधाई हों


शुक्रवार, 9 अप्रैल 2010

एचबी रोड से कल्बरोड तक (अलोका)

एचबी रोड से कल्बरोड तक
उस वक्त तक हम
अकेले- अकेले थे
अलग- अलग बटे थे।
अपनी व्यथा
दूर जाकर
उसके मंच में कहते थे।
उस वक्त तक हम
अकेले- अकेले ही थे।
अलग- अलग
वि’ाय,
वि”व,
विकास के लिए
बस एक वक्त तक
एक विचार
फिर................

उस वक्त तक हम
अकेले थे।
अलग- अलग
माटी- पार्टी और अपना राज्य
एक सपना
सब देखते रहें............................

उस वक्त तक हम
अकेले थे।
अलग- अलग

उसकी ही मंच से
अलग राज्य के संघर्’ा के लिए
आवाज लगायी हमने
भूखें रहकर कसमें खाई हमनें।
वो वक्त आया
जब हमनें
मिलकर संघर्’ा के रास्ते को
चुनौती पूर्ण बनाया
विकास”ाील और विकसित दे”ा को
चुनौतियों से ललकारा
अपना अ”िायाना बनाया
एचबी रोड से कल्ब रोड तक

झारखण्ड में सामूहिक जीविन
और
आंदोलन में
औरतो लडकियों का योगदान
पहचान का सवाल
रोजगार का सवाल
जल- जंगल- जमीन का सवाल
निरंतर सोचने लगे थें
कल्ब रोड से एचबी रोड़ तक

निरंतर सोच ने जन्म दिया
कोयलकारेां का आंदोलन
नेतरहाट फिल्डिग फाइरिंग रेज
में नगाड़े की गुंज ने
पूरें वि”व में विस्थापन और विकास के बीच
एक सवाल खड़ा कर दिया
मानव अस्तित्व का सवाल
फिर उठता ही गया
सवाल दर सवाल
सवालो के बीच
संघर्’ा जारी रहा
जंजीरों को तोड़ा
मुक्त हुआ झारखण्ड
हमने जीत ली एक आजादी
दे”ाज जनता और दे”ाज विकास की

लेकिन ये क्या?
दे”ाज के सर पर दिकू ...........!
इधर लूट उधर लूट
अंतर मिट गया

हमारी जमीन हमारा गांव
हमारी संस्कृति, हमारा जंगल,
हमारे प”ाु-पक्षी
सब लूट के ले जा रहें है।

छिन्नता जा रहा है
हमारा सब कुछ
आज हम फिर
अकेले- अकेले
अलग- अलग क्यों?
क्या खत्म हो गये?
विकास और विना”ा के सवाल
पूंजी और पानी के सवाल
पक्षी और पूर्वज के सवाल

तब पसरें हुए सन्नाटे के बीच
अलग- अलग
अकेले- अकेले क्यों है।
कल्ब रोड़ से एचबीरोड तक




उसका रसीले ओठ

अलोका

कुछ कहा था
बंद कार के दरवाजे के अंदर से
एक मदहो”ा दिन की
याद कर तडपा रहा
चला गया वो
सारे यादों को कानों में
.गुदगुदा कर
.उस रसीले ओठ से
“ाब्दों को उकेरता

.आज कहीं खो गया।
. मैं जानती हूं
.वह मेरा
.वह भी जानता है
प्यार करता हमारे बीच में
.कितनी दुरिया है इस प्रेम में
.दो “ाहर में
खुद को बांटकर
.मेरा हिस्सा
नहीं वह दे गया।




पूरा- पूरा चाँद

पूरा- पूरा चाँद
अलोका

निकला है इस शहर में
अपनी रोshनी बिखरते
कुछ कह रहा अंधेरे से
हर कण रोshअनी की
मेरे अंगों को छूते हुए
पहुंचा रहा
अहसास तुम्हारे तक
पूरा पूरा चांद
आसमान मे छाया आज
चांदनी की इस रो”ानी से
रौ”ान होता वह अहसास
मैं महसूस करने लगी
मोबाइल नेटवर्क साथ
अंधेरा आज नेटवर्क की तरह
आपके करीब ले आया
पूरा- पूरा चांद
आया है
मेरे घर
तेरा पैगाम लेकर
तेरा एहसास लेकर।
पूरा- पूरा चांद
आया है आज