सोमवार, 11 जुलाई 2011

कल ही एक कविता लिखी है भेज रहा हूँ.


                              
                नागार्जुन के नाम

पीयूष पन्त
                          
        ८ जुलाई २०११
शब्द हुए बंधक
           कलम हुई दासी
          जनता में फैली अजब उदासी
         मुट्ठी जब भिंचती है उठने को ऊपर
        त्योरियां तब चढ़ जाती हैं उनकी क्यों कर
       नारे उछलते हैं गगनभेदी
       मानो बजती हो दुन्दुभी जनयुद्ध की 

      होते इशारे फिर कहर है बरपाता
      जनता पर डंडे और गोली बरसाता
     बार- बार लोकतंत्र की कसमें है खाता
     सत्ता के नशे में रहता मदमाता 
     फिर भी वो जनता का नेता कहलाता 

    कैसा ये लोकतंत्र कैसी आज़ादी 
    बोलने समझने की, जहाँ ना हो मुनादी 

                                      

रविवार, 3 जुलाई 2011

यह एक फसाना नहीं..


तमसिल

यह एक फसाना नहीं, 
हकीकत है
अपना एक जहां यहां है
एक वहां है
प्यार पनपता यहां है
और परवान चढ़ता वहां है
जिंदगी कटती यहां है
और रक्स होती वहां है
दिल रहता यहां है
और धड़कता वहां है
सपने दिखते यहां है
और साकार होते वहां है
इरादे बनते यहां है
और मजबूत होते वहां है
गरचे सच कहूं तो तमसिल
इस जहां से उस जहां तक
जद्दोजहद जिंदगी का हर लम्हा है



शुक्रवार, 1 जुलाई 2011

हर कोई को हक है



तमसिल  

हर कोई को हक है
अपनी जिंदगी जीने
दिल लगाने और मुस्कुराने का
दर्द क्यों उभरता है मेरे सीने का

हर कोई को हक है
अपने फैसले लेने
सपने सजाने और दुनिया बसाने का
हौसला क्यों टूटता है मेरे जीने का

हर कोई को हक है
अपने लिए सोचने
समझने और फिक्र करने का
दिल क्यों करता है जहर पीने का

हर कोई को हक है
अपने हुस्न पे इतराने
खिलखिलाने और गुनगुनानेे का
चैन क्यों खोता है दिन रात का  
           30.06.2011