रणेन्द्र
नीले आसमान के दुकूल को
कमर से लपेट
बादलों की ऊनी चादर
काँधे से ओढ़ा है
शायद
थरथराहट थमे
ढँक गये हैं
सूरज-चाँद के कुंडल
प्रकम्पित है पृथ्वी
इच्छाओं की सुगन्ध
हवा में तैर रही है,
निगाहों में चमक रही हैं
बिजलियाँ
पेशानी पर स्वेद कण
दिशाएँ
मौन साधे खड़ी हैं
तय है
इसी क्षण होगी बारिश
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