बुधवार, 8 जुलाई 2009

बारिश...3

रणेन्द्र

सूर्य की परिक्रमा
करती है पृथ्वी
और पृथ्वी का
चन्द्रमा
पपीहे की टीस
चातकी की पुकार
क्रौंच का क्रन्दन
आह, दाह, आकर्षण यह
प्रकृति है
सरस-सहज प्रकृति
पर इन्द्र को
नहीं ये स्वीकार
ना कुबेर
ना दिक्पालों को
होगी
ओलों की बौछार
कतरा-कतरा बर्फ
जमेगी जमायेगी
बुझायेगी सारी आँच
चहुँओर
शीत प्रकम्पित परिवेश
ठिठुरती-ठिठुराती रात
नितान्त सूनापन
पर दूर है
शेष एक अलाव
मद्धम मद्धम धाह
निरीह कातर नेह है
महसूसना
आवाज न देना
सुन लेगा इन्द्र
सुनेंगे कुबेर
दिक्पाल भी
शीत लहरें
गला जकड़ लेगी
नीला होगा लहू
सुफेद कागज काया
मौन और दूरी की
गुजारिश और गुंजाइश
हिचकी-सिसकी नहीं
विलाप-रुदन नहीं
पलकों से ना
अन्तर्लोक में हो बारिश

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