रणेन्द्र
वह हँसती है तो
पलाश वन में
लग जाती है आग
धधकती लपकती लौ
अंतरिक्ष की ओर
सूर्योदय तक
लहकता रहता है क्षितिज
वह हँसती है तो
बरस जाते हैं बादल
गहरे हरे
चमचम पत्ते
बदल जाते हैं
पखेरूओं में
वनपाखियों के कलरव से
गूँजता है दिगन्त
सकुचा जाते हैं
बहेलियों के जाल
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