बुधवार, 8 जुलाई 2009

सांवरी-3

रणेन्द्र

देह है
या देह नहीं है
शाश्वत प्रश्न यह कि
सिर्फ रूह है -
खुशबू भरी
कि देह भी है
देह तो घर भी है
बिस्तर भी
स्पंदनहीन, आवेगहीन
कामनाओं-सी रीती
सिर्फ आदत
और ऊब.....................
मानो एक मुठ्ठी रेत
रोज गिरती हो
रूह पर...................जिसकी खुशबू
युगों पूर्व
गुम हो गई हो
कपूर सी ।
सच कहूँ तो
तुम अश्विनीकुमारों की
वरदान हो
मेरी द्वितीया !
(या अद्वितीया !)
तुम्हारे
लावण्य के एक परस ने
मनो-मन
रेत गला दी है
कालचक्र को उलट
संभव किया है
किशोर हो जाना
मेरे मन का
पुनर्नव !
कि जैसे
अपनी ही राख से
फिर जाग गया हो
ककनूस पंछी
इच्छाओं की उत्ताल-
लहरों को
सीने में समोए
वृन्त पर इकलौते
पीपल पत्ते सा थरथराता
नेह-आतुर, स्पर्श-कातर
तुम्हारी देह की चाँदनी में
बिछल-बिछल जाता
यह चिर किशोर
तुम्हारा आभारी है
मेरी उर्वशी !
+ऋषि श्वेतकेतु के
इस छतनार गाछ,
मंत्र अभिरक्षित
पुरातन सुरक्षित
पारम्परिक
परिणय के लिए
तुम
पतझड़ हो, विष हो
अभिशाप हो, कलंक हो,
पर सच तो यह है
तपती रेत सी
हमारी एषणाओं के लिए
पवित्र सात्विक
अमृत-धार हो तुम
मेरी कृष्णा !
हे मेरी मैत्रेयी !
तुमने ही तो
नवमंत्र दिया
मुझे दीक्षित किया
कि
यह देह भी सत्य है
रूह भी
और
अलौकिक खुशबू भी ।

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