उन दिनों का वो लाल रंग
(पीरियड पर मेरी कविता)
उन दिनों का वो लाल रंग
बस लहू नहीं है
वो पहचान है स्त्री होने की
वो स्त्री जो मां है
वो स्त्री जो बहन है
वो स्त्री जो दो परिवारों का बंधन है
उन दिनों का वो लाल रंग
धर्म है उनका
अपवित्र नहीं पवित्र है
सभ्य है सुशोभित है
सुनों दोमुखी समाज हमारा
वो लाल रंग आये तो दिक्कत
ना आये तो दिक्कते दिक्कत
सुनो कोई बकवास नहीं है
यह जरूरी बात है
उन दिनों का वो लाल रंग
वो बस लाल रंग नहीं
जिस्म के हिस्से से
बहता लहू है
वो सींचता है
एक नए बीज को
मैं समझता हूं तकलीफ
उस मासिक धर्म की
जो तुम्हे(स्त्री) को दर्द देता है
मैं हूँ एक पुरुष लेकिन
यह जानता हूं कि
मैं भी ना होता अगर ना होता
उन दिनों का वो लाल रंग.
समझता हूं तकलीफ होती है
तुम्हारा मन विचलित सा होता है
उन दिनों में तुम चिड़चिड़ा जाती हो
लेकिन मैं भी तो हूं
तुम्हे संवारने को
तुम्हारे मन के उस भटकाव
हर बार समेटने को
तुम ये मत समझना कि
मैं नहीं समझता हूं
तुम्हारे बार बार बाते बदलने को
छोटी सी बात पर चिल्लाने को
मैं आज खुल कर यह कहता हूं
पीरियड के दिनों में
जब तुमसे बात करता हूं
बिना कारण के तेरा झगड़ना
समझ जाता हूं कि तकलीफ में हो तुम
लेकिन मैं मानता हूं कि
हमारे लिए भी जरूरी है
उन दिनों का वो लाल रंग.
सभी महिलाओं को मेरा #लाल_सलाम...
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