बुधवार, 14 नवंबर 2018

सोंचा एक तस्वीर बनाऊँ (तीर्थ नाथ आकाश)


सोंचा एक तस्वीर बनाऊँ
लेकिन फिर याद आया कि
मेरे जीवन के सारे रंग 
कहीं खो गए.
मैं बन्द अंधेरे कमरे में
कुछ ढूंढ रहा था
कुछ खोज नहीं पाया
बस रोता रहा सिराहने तकिए के
रात गुजरती रही 
लेकिन मैं जगता रहा
सुबह के इंतजार में
तुम्हारी दी हुई चादर को
लपेट कर सोने की कोशिश में
तुम्हारी याद फिर रुला जाती है
तुम याद रखना कि 
मैं तुम्हारे बिना अधूरा हूं
जंगल जैसे नदी बिन अधूरा
घड़ी की सुई टिकटोक बजती 
सुन उस आवाज को मैं
इंतजार करता हूं तुम्हारे आने का
तुम जब कहती हो कि
मेरा प्रेम झूठा है
तब मन टूट जाता है
लगता है सर पटक तेरे कदमों में
खुद को मार दुँ
जब तुम कहती हो कि
मुझसे दूर रहो 
तब मन करता है
खुद की जिंदगी खत्म कर
तेरा जीवन संवार दुं
लेकिन करूँ तो क्या
जीवन कोई धागा नहीं 
जिसे जब चाहा नोच लिया
लेकिन अब यह खत्म होगा
ना तेरे करीब रहूंगा
ना तुमको कोई तकलीफ होगा
अब मैं अपने राह चलूंगा
हर भीड़ में अकेला
बिना किसी सहारे चलूंगा
मैं तकलीफ में हूं
मेरे जीवन में
मेरे शरीर में
इतना दर्द है कि
मैं बता भी नहीं सकता
लेकिन चलो अब खत्म करों
जाओ तुम जी लो
खुश रहना तुम
मुझे मिस कर रही हो
अब मत कहना तुम
मैं चलता हूँ 
तुम्हे भूलना आसान नहीं 
लेकिन मैं मरता जीता
चलता हूँ.

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