रविवार, 31 मार्च 2013

जब दुनिया के पूरे तेल के इलाकों पर अमरीका का कब्ज़ा हो जायेगा



जब दुनिया के पूरे तेल के इलाकों पर अमरीका का कब्ज़ा हो जायेगा 
तब मुसलमानों को कोई भी आतंकवादी नहीं कहेगा 
ना मीडिया 
ना दुनिया के पढ़े लिखे 
बर्गर खा कर च्युंगम चबा रहे लोग 

जब बस्तर 
की सारी खदानों पर 
सरकार का कब्ज़ा 
हो जाएगा 
फिर हमारी फौज़ें भी वहाँ से वापिस 
आ जायेंगी 
तब नक्सलवाद देश की आंतरिक सुरक्षा के लिये 
खतरा नहीं माना जायेगा 

मैं कई बार डरता हूं 
कि जब पूरा विकास हो जाएगा 
और हमारा कोई 
दुश्मन नहीं होगा 
तब सरकार के लिये करने को क्या काम बचेगा ?

'एक और मृत्यु ''


'एक और मृत्यु ''
-संध्या सिंह
तुम भी तिल तिल मर रहे थे 
और मैं भी ,
तुम भी जीवन ढूंढ रहे थे 
और मैं भी |
सोचा ...
प्रेम के धागे से फटे घाव सियेंगे 
और ....
एक दूजे में जियेंगे 
मगर ....
तुम्हे स्वछंदता चाहिए थी 
मुझे विश्वास ,
मुझे समंदर चाहिए था 
तुम्हे आकाश |
मैं मछली थी 
और तुम परिंदा ,
इस साथ रहने की जिद में 
कोई एक ही रह पाता 
ज़िंदा ........!!!!

शनिवार, 30 मार्च 2013

औरत की प्रतीक्षा में चाँद

अनुज लुगुन



उस रात आसमान को एकटक ताकते हुए 
वह जमीन पर अपने बच्चों और पति के साथ लेटी हुई थी
उसने देखा आसमान 
स्थिर ,शांत और सूनेपन से भरा था 
तब वह कुछ सोचकर 
अपनी चूड़ियां ,बालियाँ ,बिंदी और थोड़ा-सा काजल
उसके बदन पर टांक आई 
और आसमान 
पहले से ज्यादा सुन्दर हो गया ,

रात के आधे पहर जंगल के बीच 
जब सब कुछ पसर गया था 
छोटी-छोटी पहाड़ियों की तलहटी में बसे 
इस गाँव से होकर गुजरती हवाओं को
वह अपने बच्चों और पति के लिए तराश रही थी 
उसी समय चाँद उसके पास चुपके से आया 
और बोला-
“सुनो! हजार साल से ज्यादा हो गये 
एक ही तरह से उठते –बैठते ,चलते,
खाते –पीते और बतियाते हुए 
तुम्हारा हुनर मुझे नए तरीके से
सुन्दर और जीवन्त करेगा
तुम मुझे तराश दो”,

वह औरत अपने बच्चों और पति की ओर देख कर बोली –
“मैं कुछ देर पहले ही पति के साथ 
खेत से काम कर लौटी हूँ और
अभी –अभी अपने बच्चों और पति को सुलाई हूँ
सब सो रहे हैं अब मुझे घर की पहरेदारी करनी है
इसलिए जब मैं खाली हो जाऊं
तब तुम्हारा काम कर दूंगी 
अभी तुम जाओ”
और चाँद चला गया उस औरत की प्रतीक्षा में ,

चाँद आज भी उस औरत की प्रतीक्षा में है. 

मुझे बांझ कहती है सास मेरी



मुझे बांझ कहती है सास मेरी
और मेरी ननद ब्रजवासिन पुकारती है
जो लाया ब्‍याह कर उसने घर से निकाल दिया
वन में
घनघोर वन में अकेली खड़ी हूं मैं

ऐ बाघिन
अनंत असह दु:ख हैं मेरे
खा जाओ मुझे
कर दो मेरी पीड़ा अंत

जाओ, लौट जाओ उस घर
वही है आश्रय तुम्‍हारा
दु:ख हों या सुख
मैंने अगर खा लिया तुम्‍हें तो
बांझ हो जाऊंगी मैं भी

ऐ नागिन, 
डंसो मुझे
विष तुम्‍हारा अमृत बनेगा मेरे लिए
मुक्‍ति मिलेगी मुझे

जाओ, लौट जाओ उस घर
वहीं करो तप
तीर्थ वही है तुम्‍हारा
मैंने अगर डंस लिया तुम्‍हें
बांझ हो जाऊंगी मैं भी

ऐ भूमि...मां हो तुम
अपनी गोद दो मुझे
फटो कि समा जाऊं
छिप जाऊं तुम्‍हारे गर्भ में
शरण दो मां

नहीं बेटी,
लौट जाओ अपने पति के घर
मैं नहीं दे सकती आश्रय
न गोद
न गर्भ
अगर दिया यह सब तुम्‍हें 
बंजर हो जाऊंगी मैं
जाओ, लौट जाओ....
(एक भोजपुरी लोकगीत की पुनर्रचना)

हमारे हमसफ़र भी घर से जब बाहर निकलते हैं,


अशोक रावत की ग़ज़लें

हमारे हमसफ़र भी घर से जब बाहर निकलते हैं,
हमेशा बीच में कुछ फ़ासला रख कर निकलते हैं.

छतों पर आज भी उनकी जमा हैं ईंट के अद्धे,
कहीं क़ानून से सदियों पुराने डर निकलते हैं. 

समझ लेता हूँ मैं दंगा अलीगढ़ में हुआ होगा,
मेरी बस्ती में मुझसे लोग जब बच कर निकलते हैं.

किसे गुस्सा नहीं आता कहाँ झगड़े नहीं होते,
मगर हर बात पर क्या इस तरह ख़ंजर निकलते हैं.

जिन्हें हीरा समझ कर रख लिया हमने तिज़ोरी में,
कसौटी पर परखते हैं तो सब पत्थर निकलते हैं.

कहीं पर आग लग जाये, कहीं विस्फोट हो जाये,
हमेशा खोट मेरी कौम के भीतर निकलते हैं.

त्वचा


मंगलेश डबराल की एक कविता

त्वचा


त्वचा ही इन दिनों दिखती है चारों ओर

त्वचामय बदन त्वचामय सामान

त्वचा का बना कुल जहान

टीवी रात-दिन दिखलाता है जिसके चलते-फिरते दृश्य

त्वचा पर न्योछावर सब कुछ

कई तरह के लेप उबटन झाग तौलिए आसमान से गिरते हुए

कमनीय त्वचा का आदान-प्रदान करते दिखते हैं स्त्री-पुरुष

प्रेम की एक परत का नाम है प्रेम

अध्यात्म की खाल जैसा अध्यात्म

सतह ही सतह फैली है हर जगह उस पर नए-नए चमत्कार

एक सुंदर सतह के नीचे आसानी से छुप जाता है एक कुरूप विचार

एक दिव्य त्वचा पहनकर प्रकट होता है मुकुटधारी भगवान



यह कोई और ही त्वचा है

जो जीती-जागती-धड़कती देह में से नहीं उपजती उसकी सुंदरता बनकर

जो सांस नहीं लेती जिसके रोंये नहीं सिहरते

जिसे पीड़ा नहीं महसूस होती

यह कबीर की मुई खाल नहीं है

जिसकी गहरी सांस लोहे को भस्म कर देती है

यह कोई और ही त्वचा है जो कोई पुकार नहीं सुनती

जिसे छूने पर रक्त नहीं उछलता हृदय नहीं पसीजता

सतह पर पड़ा रहता है दुख

झुर्रियों के समुद्र में विलीन होती जाती मोटी खाल की एक नदी

अपने साथ बहाकर ले जाती है सुगंधमय प्रसाधन तौलिए उबटन

यही है हमारा त्वचामय समय यही है हमारा निवास

इसी पर नाचते हैं हमारे विचार

देखो एक रोगशोकजरामरणविहीन कविता की दशा

वह यहां त्वचा की तरह सूखती हुई पड़ी है ।

( समकालीन सृजन के ‘कविता इस समय’ अंक से साभार 

ज्ञानेन्द्रपति की एक कविता


ज्ञानेन्द्रपति की एक कविता

ट्राम में एक याद
चेतना पारीक कैसी हो ?
पहले जैसी हो ?
कुछ-कुछ खुश
कुछ-कुछ उदास
कभी देखती तारे
कभी देखती घास
चेतना पारीक, कैसी दिखती हो ?
अब भी कविता लिखती हो ?


तुम्हें मेरी याद न होगी
लेकिन मुझे तुम नहीं भूली हो
चलती ट्राम में फिर आँखों के आगे झूली हो
तुम्हारी कद-काठी की एक
नन्ही-सी, नेक
सामने आ खड़ी है
तुम्हारी याद उमड़ी है


चेतना पारीक, कैसी हो ?
पहले जैसी हो ?
आँखों में अब भी उतरती है किताब की आग ?
नाटक में अब भी लेती हो भाग ?
छूटे नहीं हैं लाइब्रेरी के चक्कर ?
मुझ-से घुमंतू कवि से होती है टक्कर ?
अब भी गाती हो गीत, बनाती हो चित्र ?
अब भी तुम्हारे हैं बहुत-बहुत मित्र ?
अब भी बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती हो ?
अब भी जिससे करती हो प्रेम उसे दाढ़ी रखाती हो ?
चेतना पारीक, अब भी तुम नन्हीं सी गेंद-सी उल्लास से भरी हो ?
उतनी ही हरी हो ?

उतना ही शोर है इस शहर में वैसा ही ट्रैफिक जाम है
भीड़-भाड़ धक्का-मुक्का ठेल-पेल ताम-झाम है
ट्यूब-रेल बन रही चल रही ट्राम है
विकल है कलकत्ता दौड़ता अनवरत अविराम है


इस महावन में फिर भी एक गौरैया की जगह खाली है
एक छोटी चिड़िया से एक नन्ही पत्ती से सूनी डाली है
महानगर के महाट्टहास में एक हँसी कम है
विराट धक-धक में एक धड़कन कम है कोरस में एक कंठ कम है
तुम्हारे दो तलवे जितनी जगह लेते हैं उतनी जगह खाली है
वहाँ उगी है घास वहाँ चुई है ओस वहाँ किसी ने निगाह तक नहीं डाली है


फिर आया हूँ इस नगर में चश्मा पोंछ-पोंछ कर देखता हूँ
आदमियों को किताबों को निरखता लेखता हूँ
रंग-बिरंगी बस-ट्राम रंग-बिरंगे लोग
रोग-शोक हँसी-खुशी योग और वियोग
देखता हूँ अबके शहर में भीड़ दूनी है
देखता हूँ तुम्हारे आकार के बराबर जगह सूनी है


चेतना पारीक, कहाँ हो कैसी हो ?
बोलो, बोलो, पहले जैसी हो ?

कुंवर नारायण की एक कविता


कुंवर नारायण की एक कविता

दीवारें 
अब मैं एक छोटे-से घर
और बहुत बड़ी दुनिया में रहता हूं

कभी मैं एक बहुत बड़े घर
और छोटी-सी दुनिया में रहता था
कम दीवारों से 
बड़ा फ़र्क पड़ता है
दीवारें न हों
तो दुनिया से भी बड़ा हो जाता है घर ।

Ish Mishra



तराशना है अगर समतावादी एक विकल्प 
लेना होगा नियंत्रण की वर्जानाएं तोड़ने संकल्प 
तोडनी होगी रश्म-ओ-रिवाज़ की दीवारें 
ध्वस्त करनी होंगी वैचारिक वर्चस्व की प्राचीन प्राचीरें 
आयेगी ही कभी-न-कभी तो जनवाद के आंधी 
उड़ जायेंगे जिसमें सारे नकली गांधी 
[३०.०३.२०१३]

और उसके बारे में



और उसके 
बारे में तुम कभी नहीं जान पाओगे
कि कितना सब्र था उसमे
पिछली कई रातों से उसने अपनी आस्तीनें नहीं मोड़ी थी
उसने हमे बताया कि लड़कर एक नई व्यवस्था बनाने से पहले
हमे वह बचा लेना चाहिए

मसलन गांव का आखिरी घर
छोटी पहाड़ियों के बीच की जगह
और एक बनते हुए बांध का रुकना
जिसे वे खत्म कर देना चाहते हैं, परसों तक
वह जाने क्या-क्या बताता रहा देर सांझ 
और यह सब सुनने के लिए
कोयल नदी मुड़कर ठहर गई थी जाते-जाते......

गुरुवार, 28 मार्च 2013

थोड़ा सा ईमान


थोड़ा सा ईमान
अशोक रावत की ग़ज़लें

अब भरोसा ही नहीं होता किसी के नाम पर,
दुश्‍मनी के सिलसिले हैं, दोस्‍ती के नाम पर.

आज़मा कर देखे हैं हर नस्‍ल के हमने चिराग़,
पर अँधेरा ही मिला है रौशनी के नाम पर.

आरती का शब्‍द उनमें एक भी शामिल नहीं,
हमने जो ध्‍वनियॉं सुनी हैं आरती के नाम पर.

जोड़ कर तो देखिए अब चार इज़्ज़तदार लोग,
आप तुलसी, सूर, मीरा, जायसी के नाम पर.

एक दिन मेयर बनेगा देखिए, ये आदमी,
क़त्‍ल का इल्‍ज़ाम है जिस आदमी के नाम पर.

कुछ पुलिसवालों ने मिलके लूट ली बस्‍ती मेरी,
पर शिकायत दर्ज़ है ये चौधरी के नाम पर.

(Pix: Mughal Emperor Jahangeer enjoying Holi)


Kyon mo par rang ki maari pichkari 
“Why did you spray colour on me?

Dekho Kuarji, doongi main gaari
Look here Kuarji I shall rebuke you sharply! 

Bhaag sakoon main kaise mosu bhaaga nahin jaat
How should I run away, I cannot run;

Thaari ab dekhoon aukoon jo sanmukh aat. 
I stand watching as he approaches

- Babar ki akhiri aulad
(Bahadur Shah Zafar)

(Pix: Mughal Emperor Jahangeer enjoying Holi)

वो कागज़ ही थे



वो कागज़ ही थे
जहां नहीं मारी गई
कोई महिला
दलित
नहीं हुए दंगे
नही हुए घोटाले
नहीं हुआ इंसानियत का
बलात्कार
आप समझ रहे हैं न
कितने अहम हैं कागज़
इस नष्ट होती जाती दुनिया में
इसीलिए कागज़ बचाइए
कागज़ बचेगा तो देश बचेगा

'' अब कैसे कोई गीत बने ''


'' वियोगी होगा पहला कवि ...आह से उपजा होगा गान .''...सुमित्रा नंदन जी की अमर कृति से उपजे कुछ भाव .....

'' अब कैसे कोई गीत बने ''
-------संध्या सिंह



शब्दों का झरना लुप्त हुआ
भावों का दरिया सुप्त हुआ 
जब कलम रेत में ठूंठ हुई 
अब कैसे कोई गीत बने .....

बेचैन करे फिर व्यथा कोई 
रोके ड्योढी पर प्रथा कोई 
या घुटे सांस दीवारों में 
अनकही रहे फिर कथा कोई 

जो कसे बेडियाँ पैरों में 
फिर कट्टर कोई रीत बने 
तब शायद कोई गीत बने ....

फिर पंख परिंदे का टूटे 
या बीच राह मंजिल छूटे
पूरा घट जिसको सौंप दिया 
वो बूँद बूँद जीवन लूटे 

फिर कोई खंडित स्वप्न दिखे 
या एक अधूरी प्रीत बने 
तब शायद कोई गीत बने .....

अशोक रावत की ग़ज़लें




सर झुकाने उसकी चौखट पर मैं रोज़ाना गया,
ये अलग किस्सा है क़ाफ़िर क्यों मुझे माना गया.

अब किसी की फ़िक्र में ये बात शामिल ही नहीं,
नाम जाना भी गया तो किस लिये जाना गया.

जो हमारी जान थी, पहचान थी, ईमान थी,
आज उस तहज़ीब का हा एक पैमना गया. 

क़ातिलों का पक्ष सुन कर ही अदालत उठ गई, 
बेगुनाहों की गवाही को कहाँ माना गया. 

उनकी हाँ में हाँ मिलाना मुझको नामंज़ूर था 
मेरे सीने पर तमंचा इसलिये ताना गया. 

मैं किसी पहचान में आऊँ न आऊँ ग़म नहीं,
मेरी ग़ज़लों को तो दुनिया भर में पहचाना गया.

थोड़ा सा ईमान: अशोक रावत की ग़ज़लें




हमको मंज़ूर था ज़ख़्म खाते रहे,
दोस्तों को मगर आज़माते रहे.

वो बुझाएं दिये उनका ये शौक था,
हम को ये शौक था हम जलाते रहे.

कोई रिश्ता तो तुमने बनाए रखा,
चाहे दुश्मन समझ के निभाते रहे.

हमने ज़ाहिर किये दर्द तो क्या मिला,
तुमने अच्छा किया तुम छुपाते रहे.

आँधियों की नज़र से रहे बेख़बर, 
फूल जब तक रहे मुस्कराते रहे.

वो ग़ज़ल हो गये ये अलग बात है,
दर्द थे हम जिन्हें गुनगुनाते रहे.

(साहिर लुधियानवी)


वो सुबह कभी तो आएगी
वो सुबह कभी तो आएगी
इन काली सदियों के सर से जब रात का आँचल ढलकेगा,
जब दुःख के बादल पिघलेंगे, जब सुख का सागर छलकेगा,
जब अम्बर झूम के नाचेगा, जब धरती नगमे गायेगी
वो सुबह कभी तो आएगी
वो सुबह कभी तो आएगी

जिस सुबह की खातिर जुग जुग से हम सब मर मरकर जीते हैं,
जिस सुबह के अमृत की धुन में हम जहर के प्याले पीते हैं,
इन भूखी प्यासी रूहों पर इक दिन तो करम फरमाएगी
वो सुबह कभी तो आएगी
वो सुबह कभी तो आएगी

माना कि अभी तेरे मेरे अरमानों की कीमत कुछ भी नहीं,
मिटटी का भी है कुछ मोल मगर इंसानों की कीमत कुछ भी नहीं,
इंसानों की इज्ज़त जब झूठे सिक्कों में न तोली जायेगी
वो सुबह कभी तो आएगी
वो सुबह कभी तो आएगी

दौलत के लिए जब औरत की अस्मत को न बेचा जायेगा,
चाहत को न कुचला जाएगा, गैरत को न बेचा जायेगा,
अपनी काली करतूतों पर जब ये दुनियाँ शरमाएगी
वो सुबह कभी तो आएगी
वो सुबह कभी तो आएगी

बीतेंगे कभी तो दिन आखिर ये भूख के और बेकारी के,
टूटेंगे कभी तो बुत आखिर दौलत की इज़ारेदारी के,
जब एक अनोखी दुनियाँ की बुनियाद उठाई जायेगी
वो सुबह कभी तो आएगी
वो सुबह कभी तो आएगी

मज़बूर बुढ़ापा जब सूनी राहों में धूल न फांकेगा,
मासूम लड़कपन जब गंदी गलियों में भीख न मांगेगा,
हक़ मांगने वालों को जिस दिन सूली न दिखाई जायेगी
वो सुबह कभी तो आएगी
वो सुबह कभी तो आएगी

फ़ाकों की चिताओं पर जिस दिन इंसां न जलाए जायेंगे,
सीनों के दहकते दोजख में अरमां न जलाए जायेंगे,
वो सुबह कभी तो आएगी
वो सुबह कभी तो आएगी.

होली की ठिठोली / दुष्यंत कुमार



(ये दोनों ही ग़ज़लें 1975 में ’धर्मयुग’ के होली-अंक में प्रकाशित हुई थीं।)

दुष्यंत कुमार टू धर्मयुग संपादक

पत्थर नहीं हैं आप तो पसीजिए हुज़ूर ।
संपादकी का हक़ तो अदा कीजिए हुज़ूर ।

अब ज़िंदगी के साथ ज़माना बदल गया, 
पारिश्रमिक भी थोड़ा बदल दीजिए हुज़ूर ।

कल मयक़दे में चेक दिखाया था आपका, 
वे हँस के बोले इससे ज़हर पीजिए हुज़ूर ।

शायर को सौ रुपए तो मिलें जब ग़ज़ल छपे, 
हम ज़िन्दा रहें ऐसी जुगत कीजिए हुज़ूर ।

लो हक़ की बात की तो उखड़ने लगे हैं आप,
शी! होंठ सिल के बैठ गए ,लीजिए हुजूर ।

धर्मयुग सम्पादक टू दुष्यंत कुमार
(धर्मवीर भारती का उत्तर बक़लम दुष्यंत कुमार)

जब आपका ग़ज़ल में हमें ख़त मिला हुज़ूर ।
पढ़ते ही यक-ब-यक ये कलेजा हिला हुज़ूर ।

ये "धर्मयुग" हमारा नहीं सबका पत्र है, 
हम घर के आदमी हैं हमीं से गिला हुज़ूर ।

भोपाल इतना महँगा शहर तो नहीं कोई, 
महँगी का बाँधते हैं हवा में किला हुज़ूर ।

पारिश्रमिक का क्या है बढ़ा देंगे एक दिन,
पर तर्क आपका है बहुत पिलपिला हुज़ूर ।

शायर को भूख ने ही किया है यहाँ अज़ीम, 
हम तो जमा रहे थे यही सिलसिला हुज़ूर ।