सोमवार, 25 मार्च 2013

क्या अब नहीं भाती तुम्हें



क्या अब नहीं भाती तुम्हें
मेरी बाते, 
मेरी मुस्कुराहटॆं
हां कुछ बदल तो गया है अब
मेरे बालों का सफेद रंग
चेहरे पर पडी झुर्रियां,
तुम्हारा मुझे देखने का ढंग
सच कहना क्या सच में
बदल गया है कुछ
बालकनी में बैठ कर
घंटों बतियाना,
अब नहीं बैठ पाती मैं
घंटों , जोडो के दर्द 
के कारण
बडे से चश्में से झांकती
मेरी बोझल , बूढी आंखे
और उनमें झलकती 
मेरी लाचारी,
शायद अब मुझमें
नहीं रह गया
वह आकर्षण, य़ा
शायद तुम्हारी 
नजरों का ही
धोखा है ये, 
क्योंकि प्रेम
कभी बूढा नही होता........

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