अशोक रावत की ग़ज़लें
हमारे हमसफ़र भी घर से जब बाहर निकलते हैं,
हमेशा बीच में कुछ फ़ासला रख कर निकलते हैं.
छतों पर आज भी उनकी जमा हैं ईंट के अद्धे,
कहीं क़ानून से सदियों पुराने डर निकलते हैं.
समझ लेता हूँ मैं दंगा अलीगढ़ में हुआ होगा,
मेरी बस्ती में मुझसे लोग जब बच कर निकलते हैं.
किसे गुस्सा नहीं आता कहाँ झगड़े नहीं होते,
मगर हर बात पर क्या इस तरह ख़ंजर निकलते हैं.
जिन्हें हीरा समझ कर रख लिया हमने तिज़ोरी में,
कसौटी पर परखते हैं तो सब पत्थर निकलते हैं.
कहीं पर आग लग जाये, कहीं विस्फोट हो जाये,
हमेशा खोट मेरी कौम के भीतर निकलते हैं.
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