गुरुवार, 28 मार्च 2013

(साहिर लुधियानवी)


वो सुबह कभी तो आएगी
वो सुबह कभी तो आएगी
इन काली सदियों के सर से जब रात का आँचल ढलकेगा,
जब दुःख के बादल पिघलेंगे, जब सुख का सागर छलकेगा,
जब अम्बर झूम के नाचेगा, जब धरती नगमे गायेगी
वो सुबह कभी तो आएगी
वो सुबह कभी तो आएगी

जिस सुबह की खातिर जुग जुग से हम सब मर मरकर जीते हैं,
जिस सुबह के अमृत की धुन में हम जहर के प्याले पीते हैं,
इन भूखी प्यासी रूहों पर इक दिन तो करम फरमाएगी
वो सुबह कभी तो आएगी
वो सुबह कभी तो आएगी

माना कि अभी तेरे मेरे अरमानों की कीमत कुछ भी नहीं,
मिटटी का भी है कुछ मोल मगर इंसानों की कीमत कुछ भी नहीं,
इंसानों की इज्ज़त जब झूठे सिक्कों में न तोली जायेगी
वो सुबह कभी तो आएगी
वो सुबह कभी तो आएगी

दौलत के लिए जब औरत की अस्मत को न बेचा जायेगा,
चाहत को न कुचला जाएगा, गैरत को न बेचा जायेगा,
अपनी काली करतूतों पर जब ये दुनियाँ शरमाएगी
वो सुबह कभी तो आएगी
वो सुबह कभी तो आएगी

बीतेंगे कभी तो दिन आखिर ये भूख के और बेकारी के,
टूटेंगे कभी तो बुत आखिर दौलत की इज़ारेदारी के,
जब एक अनोखी दुनियाँ की बुनियाद उठाई जायेगी
वो सुबह कभी तो आएगी
वो सुबह कभी तो आएगी

मज़बूर बुढ़ापा जब सूनी राहों में धूल न फांकेगा,
मासूम लड़कपन जब गंदी गलियों में भीख न मांगेगा,
हक़ मांगने वालों को जिस दिन सूली न दिखाई जायेगी
वो सुबह कभी तो आएगी
वो सुबह कभी तो आएगी

फ़ाकों की चिताओं पर जिस दिन इंसां न जलाए जायेंगे,
सीनों के दहकते दोजख में अरमां न जलाए जायेंगे,
वो सुबह कभी तो आएगी
वो सुबह कभी तो आएगी.

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