बहुत साल पहले लिखी कुछ पंक्तियां....जब पंजाब में आतंकवाद का दौर चल रहा था, सीमांत क्षेत्र में हुए एक कार्यक्रम में यह रचना सुनाई....आज याद आई तो साझा कर रहा हूं
अपनी तो होली, उसी रोज हो ली
आंखों से लगाई और चुनरी भिगो ली
ना हल्दी का उबटन, ना चन्दन का लेपन
ना रोली ही घोली बस चुपचाप रो ली
कुंवारी उम्मीदें और चिटटे हैं सपने
सूना है आंगन और खाली है झोली
ना गिद्दा ना भंगड़ा ना बोली ही बोली
पिचकारी से निकली अतिवादी की गोली
ना चंग ना रंग ना भंग ही घोला
कराहती गई बस दीवानों की टोली
वर्दी के पहरों में होली की कविता
भीतर जो तोली...तब जा के बोली
अपनी तो होली.....उसी रोज हो ली...
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