बुधवार, 8 जुलाई 2009

हँसी

रणेन्द्र

1 वह हँसती है
मानो स्त्री न हो
सिर्फ हँसी हो
कौंधती है हँसी,
तीखे, नुकीले, बनैले
शब्दों के सामने
दमक से
कुन्द करती है
सबकी धार
हँसी है
अनवरत झरता
झरना,
शीतल, पारदर्शी
चमकते जल के पास
ठिठक गए हैं
सियाने शिकारी,
व्यग्र ब्याध सँपेरों के पाँव
हँसी है
रिमझिम बारिश,
भींगता है जंगल
पुराने नये पेड़
सूखी हरी पत्तियाँ
शाखाएँ, तने, जड़
पशु, पंछी, कीड़े, सरीसृप
धोना चाहती है
सबके धूल
मैल
विष सारे
हँसी है
कि धैर्य,
टूटेगा तो
आयेगी बाढ़

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