बुधवार, 8 जुलाई 2009

हँसी है कि

हँसी है कि
उड़ती
डोलती फिरती हैं
तितलियाँ
दंतपंक्तियों की द्युति से दमकती
श्वेत शुभ्र तितली
पुतलियों की राह
मन में
उतरती है तो
अन्तर्लोक में
होता है
सूर्योदय
टेसू फूल होठों से
उड़ती तितलियाँ
नसों में
उतरती हैं तो
तेज-तेज प्रवाह में
आता है उफान
ऊँचा उठता ज्वार
नीले आसमान के पार
जिसके मार से
बिखर जाते हैं अणु-अणु,
उड़ती है रेत
लहराते आँचल से
उड़ी तितलियाँ
मन के
हजारों हजार
द्वारों के पार अथाह थार
रेत को
भिगोंती है बारिश
खिल-खिल जाती हैं
ढेरो सूरजमुखियाँ
वह स्त्री है
कि अगरु गंध
चाँदनी या स्मृति
या स्मृति की कील पर
लटकती कोई पेन्टिंग
या दूर भटकती
विरह की धुन
वह स्त्री है
या सिर्फ हँसी

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