बुधवार, 8 जुलाई 2009

बारिश..1

रणेन्द्र

असंख्य निगाहों के ताप को
अनदेखा करती
कामनाओं की नदी
उफन रही है,
संयम टूटे
उसके पूर्व
भाप होना चाहता हूँ
अदृश्य ऊष्म उच्छवास,
नीले आकाश के मड़वे तले
खो जाना चाहता हूँ
तुम्हारे
ऊदे श्वेत श्याम
उत्तरीय में,
आषाढ़ के प्रथम दिवस
श्रावणी पूर्णिमा
हस्ती नक्षत्र स्वाति
जब जी चाहेछोड़ देना
. . यूँ ही,
गिर कर बिखर जाऊँगा कहीं भी
धूप-धूल-मिट्टी
नदी-नाला-जंगल
कछार-थार-पठार,
कहीं भी. . . उफ भी नहीं करुँगा
कोई शिकवा-शिकायत नहीं
असंख्य - अनन्त बून्दंे
यूँ ही तो
बिछुड़ती हैं
लोग कुछ भी कहते रहें
जैसे बारिश. . . .।

कोई टिप्पणी नहीं: