शनिवार, 10 जनवरी 2009

राजधानी एक्सप्रेस

खगेंदर ठाकुर


राजधानी से राजधानी तक

जाती है राजधानी एक्सप्रेस

राजधानी के समकक्ष

नगरों में रूकती है राजधानी एक्सप्रेस।

छोटे-छोटे “ाहरों ओर कस्बों से,

भारत की आत्मा को बसाने वाले गाँवों को

धूल चटाती है राजधानी एक्सप्रेस

खेतों की हरियाली को धूमिल बनाती है

धम-धम करती भागती राजधानी एक्सप्रेस

यात्रा जो करते हैं राजधानी एक्सप्रेस में

दिखायी नहीं पड़ती उनकी काया

उनको जो ताकते रहते हैं बाहर से,

राजधानी एक्सप्रेस के

रूप, रंग और रफ्तार को देख-देख

सोचते रहतें हैं वे कि

हमारी बगल से दौड़ती चली जाती है

वह भी क्या रेलगाड़ी है?

रेलगाड़ी है तो यहाँ अपने स्टे”ान पर

क्यों नहीं रूकती है राजधानी एक्सप्रेस?

उन्हें सवार होने का मौका

क्यों नहीं देती राजधानी एक्सप्रेस?

वे “ाायद नहीं जानते और

जान लेंगे जब तो कैसा लगेगा इन्हें कि

बाहर की हवा नहीं जा सकती उसके भीतर

उसके भीतर की हवा नहीं आती बाहर

कोई ताल्लुक नहीं दोनों हवाओं में,

बाहर का मौसम

दम तोड़देता है उसके दरवाजे पर

राजधानी का अपना मौसम है

“ाीतताप नियंत्रित वह सब दिन

उसमें सवार लोगों के कहने पर

घटता-बढ़ता है हवा का तापमान

सुना है, जैसा होता था

रावण के महल में

नहीं होते रावण की तरह

फिर भी वे लेते है मजा

सोने-से दिन और चाँदी-सी रातों का

पानी भरते हैं वहाँ वरूणदेव

न विभी’ाण को उनसे एतराज

और न राम उनसे नाराज+

राजधानी से चलकर

राजधानी के लिए

राजधानी की बनकर

राजधानी को जाती है

हमे”ाा राजधानी में

राजधानी पर रहती है

राजधानी एक्सप्रेस

भारत की आत्मा वाले लोग

दबी ज+बान से कहते हैं-

हे राजधानी एक्सप्रेस

हम राजधानी से दूर

हमारे प्रतिनिधि चढ़ते हंै

राजधानी एक्सप्रेस पर

हम तो खु”ा हैं यहाँ

तुम्हारी धूल फाँक कर

और तेज+ हवा पी कर

हम परम प्रसन्न हैं जान कर कि

हमारे दे”ा में ट्रेन भी होती है राजधानी

एकदम रोबदार राजधानी की तरह

हमारे पूरे इलाके को दहलाती हुई

प्रायः रात में गुजरती है

राजधानी एक्सप्रेस, फिर भी

भारत की आत्मा धड़कने लगती है

सन्नाटे को चीरते हुए

सन्नाटे को गहराते हुए

रो”ानी की कलम लिए

भाग जाती है राजधानी एक्सप्रेस।

हम गौरान्वित हैं

इस राजधानी एक्सप्रेस से

अँधेरे में रह कर भी।


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