रणेन्द्र
क्या ढूढ़ना चाहता हूँ इनमें
कौन सी नवीनता, अनूठापन
उन्होंने सिर्फ शिल्प बदले हैं
कथ्य नहीं बदले,
पूरी दुनिया के गुफा-भित्तिचित्रों के
पैटर्न एक से हैं
रेखांकनों में अनोखी एकरूपता
हथियार, शिकार
और उनकी घेराबन्दी,
काँधे लटके, रक्तसने शिकार
पर कहीं नहीं
टपके रक्त के दाग
न कोई आह! ना चीत्कार
इतिहास, शिकारियों की ही रचना है,
देश और काल
इन्हीं गुफाओं में कर रहे कदमताल,
फर्क सिर्फ इतना कि
गुहामानवों ने चमचमाती संज्ञाओं के
टाँग लिए टैग
कमर के वल्कल, मृगछाल के ऊपर
वर्दियाँ, पतलून, जिन्स, सुट, अगड़म-बगड़म
ड्रेस डिजाइनिंग नई संज्ञा है शायद
कि विशेषण, कि प्रदर्शन, कि छलावा,
दरअसल अँधेरी गुफा ही शाश्वत है
शाश्वत हैं, रक्तसने, काँधे लटके शिकार,
देश-काल के साथ
कदमताल करता गुहामानव
चतुर, होशियार
देता रहा हथियारों पर धार
उन पर चढ़ाता रहा
शहद के लेप पर लेप
गढ़ता रहा नये-नये टैग
पुनर्जागरण, ज्ञानोदय, आधुनिकता,
दरअसल, ये अँधेरी गुफाओें को
दिमाग की सुराख में
छुपाने की तरकीबें थीं
गैर कबिलाई, गन्दे गुलाम, घटिया नस्लें, छोटी जातियाँ,
बागी, विधर्मी, विद्रोही, नक्सली, सारी की सारी स्त्रियाँ
शिकारों की लम्बी होती गर्इं सूचियाँ
हाँका और घेरे के सात्विक सिद्धान्त
कब के स्थापित हो चुके
राज्य, धर्म, समाज, परिवार
सुविधा और हिस्सानुसार
भरपूर शिकार के लिए गढे+ गए
छोटे-बड़े घेरे हैं,
खून की धार जो बहती रही
सभ्यता नाम का खुजलाहा कुŸाा
आक्षितिज जिह्वा फैला, चाटता रहा
और संस्कृति
उसी की संगिनी
हड्डियों के ढ़ेर को चबा-चबा
धूल बनाती रही,
खाकी शिकारियों के काँधे की
काठ पर लटकी
बागी स्त्री की लाश,
शिकार के इस नये चित्र पर
अलग से कुछ नहीं कहना
माँ धरती की गोद में
कहीं कोई निष्कंटक कोना नहीं शेष
बस शेष है
धुँधला सा एक स्वप्न
तीलियाँ इक्कट्ठा करने की चाह।
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