दामिनी-ई-कोह
रिची बुरु
गुरुवार, 4 अप्रैल 2013
सदियों से
अरुणा शर्मा
सदियों से
चुपचाप सब
सहन करती
सबके दर्द को
धरा सी वहन करती,
स्वयं का त्याग कर
समाज को बनाती,
पुरुषवादी समाज में
नारीवादी सोच ढूंढती,
कभी अबला
कभी व्यर्थ सी
हां मैं स्त्री हूं..........
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
नई पोस्ट
पुरानी पोस्ट
मुख्यपृष्ठ
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें