न जाने क्यूँ ,
कविता बनती है तब .
जब मन होता है
टूट कर बिखरा हुआ,
सोई होती है इच्छाएं,
अरमान रो रो कर
हलकान हुए जाते हैं,
और जब दर्द की अधिकता से
मन का पोर पोर दुखता है,
रह रह कर यादों की
उबासी घेर लेती है,
जिन्दगी भी न,
दर्द और यादों से अलग
कुछ भी नहीं,
कुछ देर को तो
इधर उधर घुमती है,
फिर लौट आती है,
इसी की छत्रछाया में।
उन यादों से रुदन से
कभी कभी संगीत की
स्वरलहरी फूट पड़ती है,
दर्द में दुबे,
आँसुओं से सराबोर स्वर,
जो पिघला देते हैं पहाड़,
बहा देते हैं दरिया,
जाने क्यों,
कविता बनती है तब .. !!ANU!!
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें