अशोक रावत की ग़ज़लें
खेत उजाड़े बाग़ों में मनमानी की,
हमने ऐसे मौसम की अगवानी की.
जाने क्या तय करके आये थे बादल,
बरसे तो पर कितनी आनाकानी की.
अगले ही दिन लाश मिली चौराहे पर,
जिसने भी सच कहने की नादानी की.
चुप ही रहने दो हमसे ये मत पूछो,
अपनों में से किसने बेईमानी की.
अलग- अलग करके देखा जिसने देखा,
हम सब कड़ियाँ हैं तो एक कहानी की.
आख़िर तक तो कुछ भी साथ नहीं रहता.
रह जाती हैं बस कुछ याद जवानी की.
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