गुरुवार, 4 अप्रैल 2013

किसी को दे के दिल कोई नवा संज-ए-फ़ुग़ां क्यों हो (ग़ालिब)



किसी को दे के दिल कोई नवा संज-ए-फ़ुग़ां क्यों हो
न हो जब दिल ही सीने में तो फिर मुंह में ज़ुबां क्यों हो

वफ़ा कैसी कहां का इश्क़ जब सर फोड़ना ठहरा
तो फिर ऐ संगदिल तेरा ही संग-ए-आस्तां क्यों हो

कफ़स में मुझ से रूदाद-ए-चमन कहते न डर हमदम
गिरी है जिस पे कल बिजली वो मेरा आशियां क्यों हो

ये फ़ितना आदमी की ख़ान:वीरानी को क्या कम है
हुए तुम दोस्त जिसके दुश्मन उसका आस्मां क्यों हो

निकाला चाहता है काम क्या ता’नों से तू ग़ालिब
तेरे बेमेहर कहने से वो तुझ पर मेहरबां क्यों हो

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