शुक्रवार, 26 अप्रैल 2013

अशोक रावत की ग़ज़लें


अशोक रावत की ग़ज़लें

उसके आँसुओं पे जब मेरी नज़र गई,
मेरी चेतना को तार- तार कर गई. 

अँधकार है कि बीत ही नहीं रहा,
रोशनी पता नहीं कहाँ ठहर गई. 

वो ही चिड़चिड़े मिज़ाज और उदासियाँ,
दोस्तो जहाँ - जहाँ मेरी नज़र गई. 

मुझको अपनी चाहतों पे ऐतबार था, 
उम्र उसकी राह देखते गुज़र गई. 

सिर्फ़ अपनी ख़्वाहिशों को जी रहे हैं लोग, 
ये गुमान भी कि ज़िंदगी सँवर गई. 

मेरे हर सवाल पर है उनको ऐतराज़ 
उनके फैसलों पे क्या कभी नज़र गई. 

ख़ुदकुशी का भी कोई असर नहीं हुआ, 
मीडिया में चाहे टाप पर ख़बर गई.

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