सोमवार, 8 अप्रैल 2013

अशोक रावत की ग़ज़लें




मदद के वास्ते आखिर कोई कब तक दुहाई दे,
मेरी आवाज़ संसद में किसी को तो सुनाई दे. 

तेरे लफ़्ज़ों पे अब कोई भरोसा ही नहीं करता,
तू चाहे कैमरों के सामने जितनी सफ़ाई दे. 

तेरी हर घोषणा में चाँदनी का ज़िक्र होता है, 
कभी ये चाँद पूनम का हमें भी तो दिखाई दे.

यहाँ दो वक़्त की रोटी जुटाना भी असम्भव है, 
ये किसकी चाहतों में था के तू मक्खन मलाई दे 

नज़र के सामने कुछ भी न हो, हम क्या कहें इसको, 
मगर एहसास में चलता हुआ कोई दिखाई दे. 

मुझे इंसानियत के नाम पर पूरा भरोसा है,
मुझे चिंता नहीं, कोई भलाई दे, बुराई दे. 

तअज्जुब है कि आखिर किस तरह मैं कर गुज़रता हूँ, 
क़दम रुकते नहीं तब भी, न जब कुछ भी सुझाई दे.

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