सोमवार, 8 अप्रैल 2013

वीणा जैन की कविता


झरते हुए पत्तों को ---
रास्ते किधर जाते ..... मालूम कहाँ !

एक जनून ---
कि ,
छाँव किधर ...
धूप किधर ... 
पागल पवन उड़ता किधर ...होश कहाँ !

पराजित 
हरे -हरे ख़्वाब ....
पीले बदन चरमराते ... उड़ते जाते 
जाने कहाँ !

झरते हुए पत्तों को 
रास्ते किधर जाते मालूम कहाँ !

छूटते हुए पलों को 
आँचल में बाँध ... अम्बर तक फैला दूं 
हरियाली लौटा दूं 
ये हुनर मुझमें कहाँ !

निराकार ....
ओ अनीश्वर ....
मौसम के जादूगर !
मैं ढूँढती तुझे ......... तू कहाँ !

कि .
झरते हुए पत्तों को ---
रास्ते किधर जाते .....मालूम कहाँ ! 


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