सोमवार, 21 जुलाई 2014

खोया बचपन ( ज्योति लकड़ा)


गंाव से शहर आयी सुगिया 
डिबरी की म़िद्धम रौशनी में
खोंमचों पर रखे चने-चबेनों को ताकते

अक्सर छूट जाती पीछे

आपा-धापी के इस खेल में रहती पीछे
कक्षाओं में भी नहीं आती हिन्दी-अंग्रेजी 
भाषाओं के इस खेल में 
छूट जाती पीछे सुगिया

छूटती जा रही थी वह 
जीवन डगर से 
सब कक्षाओं का एक सा नक्शा
नक्शों के उन भूल-भूलैयों में 
खोया उसका बचपन 
खोया-खोया सा उसका मन
गांव-घर से जुड़ी यादें 
ले जाती खींच 
तितलियों के पीछे

नदी-नाला पहाड़-कंदरा
पार कर
पहुंची गांव-घर
ढ़ुंढ़ा ढ़ुढ़ी के 
खेल-खेल में 
मिल गए वो बीज-बारी 
जिसे
पुरखों
ने लगाया था
हड़प्पा के खेतों में

रोप दिए हैं उसने
अपने खेतों में वे बीज
सुगिया 
अब काटेगी फसल
और 
फाग के राग में गाएगी कटनी के गीत।


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