-- अनुपम मोंगिया
'' अब मैं वो पेड़ नहीं बन सकती
कि तुम पत्थर मारो
और मैं फल दूँ तुमको
कि तुम जिधर को खेओ
मैं खिचती चली जाऊँ
मैं वो फूल नहीं बन सकती
कि तुम पत्ती-पत्ती करके मसलो
और मैं बेशर्मी से महकती रहूँ
नहीं मैं वो काँटा भी नहीं हूँ
कि बिना तुम्हारे छेड़े
चुभ जाऊँ हाथों में
पर वो बादल भी नहीं हूँ
कि किसी को प्यासा देख इतना बरसूँ
कि खुद खाली हो जाऊँ
तुम्हें छाया चाहिए
फल चाहिए
तो मुझे भी खाद पानी देना होगा
तुम्हें पार लगाने का दायित्व मेरा सही
पर मुझे लहरों की दिशा में तो खेना होगा
मेरा रंग, गंध, स्पर्श तुम ले लो
पर मुझे डाली के साथ तो लगे रहने देना होगा
स्वीकार सको तो स्वीकारो
मुझे मेरे तमाम गुणों-अवगुणों
और तमाम शर्तों के साथ
वरना मैं खुश हूँ
सिर्फ मैं होने में ही.....''
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