मंगलवार, 23 दिसंबर 2008



shadyntro के पास है


suwidhawo से दूर


कुछ लोग hawaao के है बंधुवा मजदुर


कुछ लोग hawaao के है बंधुवा मजदुर


हवा हवा में भी सरकार हमारी है।


घायल रहो की ये साँस बेचारी है


यही हवा अपनी भी खाते में है भरपूर


कुछ लोग हवाओं के है बंधुवा मजदुर


शडयंत्री के पास है


सुwiधाओ से दूर




सोमवार, 22 दिसंबर 2008

खोल देते हो तुम संभावनाओ के द्वार

प्रदीप


कलाकार
खोल देते हो तुम संभावनाओ के द्वार
फिरउन पर पहरे बिठा देते हो
ये अच्छा नहीं है।
कल्पनाओं के परिदों उड़ाकर पर कतरना
और इसकी ही अर्थी में आजादी बतना
ऐसी साजि’ा हे जिसमें हम सभी है।
मिलकर ’ामिल पड़ रहा है
ले रू’ो केसुर से सुर मिलाना
आई इसकी विव’ाता का भी कोई तो हल निकाले
इस समय इसमे बड़ा ’ाप कोइ्र मुद्दा नहीं
सच कहां साहित्य विज्ञापन है
अब दर्’ान नहीं है।
आज का इन्सा मनु विज्ञान है
कोई दपर्ण नहीं है।
मान परिवत्र्तन का लेकर खुद में करते है।
सं’ाोधन सच कहू सं’ाोधन है ये सं’ाोधन ही है।
कोई परिवत्र्तन नहीं

शनिवार, 13 दिसंबर 2008

एक मानव


तंग आकर
‘’ाराब का हो गया आदी
लोग
कहने लगे घर में इसके छा गई बरबादी
मानव!
च्ुाप था
पर था
बोलने को आतुर
बोला - क्या यही है आजादी?
कोडे@लाठियां
व हजारों गलियां
सुनकर चुप था।
चुप हुआ बस
पूरा मानव समूह
चुप!
चुप्पी का राज
पर
मन मस्तिष्क
चुप कहां रहने वाला था
सल्फास की गोलियां
बनी उसकी
आवाज
द्वन्द को
दर्’ााया
उसकर मौत ’ौया
डाॅक्टर!
जे समस्याओं का
ळल ढूंढते है
पोस्टमार्टन में
उस मानव को
लाया
पोस्टमार्टम कक्ष में
चीरा लगाया डोम ने
चीखता- चिल्लाता
भागा
धमाके की डर से
दुबारा डोम
डाॅक्टरों के साथ गया डरते- डरते चीरा लगाया प्र मरे ‘’ारीर मे
उग आये थें
दिमाग
उग आई थीं
आखें
उग आये थे
कान..! नाक...!
अंग- अंग
में जीभ....
संवेदनाओं से भरी
ला’ा
जो बोल नही सका था
कह गया, बता गया
अनसुलझे प्र’नों का उतर
धमाका! धमाका!!
और सिर्फ धमाका!!!

जो सोचा नहीं

सोच रहा हूं
जो बोया नहीं
नोंच रहा हूं
आग- आग सहर में
बहार सेाच रहा हूं
टूटे पड़े तार बिखरे हैं साज
और-
तान सोच रहा हूं
बिखरे- बिखरे ‘’ाब्दों में
अक्षर- अक्षर रो रहा
बम- पिस्टल खेत में
उगेगा, झूमेा धान की बाली ‘
सोच रहा हूं
क्या कहंू, क्या करूं?
डलझे- एलझे मौसम में
गाने की सोच रहा हूं
रात में डरकर
भूख से भागकर
होता नहीं है कुछ यहां इसीलिए जो अंट नहीं सकती
वही बात
वही विचार वही जज्बात
दिमाग में
सबी
कोंच रहा हूं।

दुनिया

prem prakash ( Jharkhand)

हाय रे दुनिया
क्या कुछ नहीं बोलती
थ्बन बा पके बच्चों को
हाय रे! दुनिया
तेरी चाल भी निराली
देते तो कुछ नहीं
पर आए अगर सामने तो
आंखों में
गंगा- युमना की धार दिल में ?
अपनो के प्रति प्यार
मुख मेंच...... च....ेच....ओह! क्ी आवाज
हिचकियों से भरे ’ाब्दों में
बाप की बड़ाई
जैसे सिने पर उनके चल रही हो कटार फिर ........
ये दुनिया कहती है
उसको........
जो भी करों
सोच- समझकर करो
मुझसे डरों
मत कहो तुम
बात सच्चे
न्याय- अन्याय की
मत करों तुम बातें
ये सबकाम
तो मेरा हैअगर वो कर जाए ऐसा
तो फिर....
ये दुनिया कहती है
बिन बाप का बच्चा है
आवारा है
लथेर है
साला टुअर है!

नेता


Prem prakash ( Daltengunj)


जिसकी खादी धोती
कुर्ता व टोपी सफेदी इसकी बढ़ाए ’ाान
यही है नेता की पहचान
जिसका
जूता काला
च’मा काला
साथ ही साथ
कर्म भी काला
काले रंग मेें एसकी जान
यही है नेता की पहचान
हर दम दिखता
जिसको
‘‘ कुर्सी’’
जाप करना कुर्सी का
कुर्सी की खतिर लुटवाए हजारों की जान
यही है नतेा की पहचान।

निरंतर

pram Parkash ( Daltenjung)

अकाल के बाद मौसिम आया आका’ा चोंक पड़ा
पंतग की जगह उड रहा है आदमीं
वि’वास नहीं हुआ
आंखें छोटी करके
गोर से देखा
आदमी ही था जो उड़ नहीं रहा था
उडाया जा रहा था
डोर से बंधी लटाई
थ्कसी आदमी के हाथ नहीं .गिद्वों की चोंच में था गिद्वगिद्व!
पेंच पर पेंच लड़ा रहे थे
कभी झटका कभी ढोल
दे रहे थे......
आदमी!
.आदमी खु’ा
.बेहद खु’ा
ये क्या.......?
भक्- भक्काटा
टादमी लट खाते- खाते ज्मीन पर आ गिरा .

गिद्व नोचने लगे
आह के साथ एहसास हुआ!
प्रेम प्रकास की कंविता
ःमैं’
तैयार है
कुचल देने को भविष्य
निगल लेने को सपने
और .............
ः वो’ और तुम
तैयार है
मैं बनने को!
हल्ला बोल!!
कैद जहां राम है
कैद जहां रहीम है
हल्ला बोल!
हल्ला बोल!!
कैद जहां सरस्वती है
कैद जहां लक्ष्मी है
हल्ला बोल!
हल्ला बोल!!
कैद जहां कबूतर है
हल्ला बोल!
हल्ला बोल!!
हल्ला बोल!!!

सफदर


धूल को धूल
फूल को फूल कहने वाले
दोस्त को दोस्त
दु’मन को दु’मन कहनेवाले
पानी बचाकर आग पीनेवाले,
जीवन का हर राग गानेवाले
सफदर ने राह जो बनाया
परम्परा है हमारी।
जहां मौत का नाम नहीं
चाहे.........
बम हो या पिस्टन या हो विस्फोटक क्रिस्टल
त्रि’ाूल हो या कटारी हैजा हो या महामारी
मौत का नाम नही
आज ............
सिर्फ गाजियाबाद
का ही चैक नहीं
हर नगर के
चैक पर
हर गली
हर नुक्कड़ पर सफदर एक- एक कर रहा आहवान
आंखे खोलो
रौ’ान कर दिमाग
कर अपने
दु’मनों की पहचान
हर गली
हर नुक्कड़ पर
सफदर पीट रहा ढोल

’ाहीद उवाच

कारगील के ’ाहीदों को समर्पित
ऐ बीर!
.तेरी वीरगंाथा लिखने में
.‘’ाब्दकोष अक्षम है
क्योंकि
सीमा पर
तू और सिर्फ तू ही
सक्षम है। ’ाहीद उवाच
खामो’ा! खामो’ा!! खामो’ा!!!
ऐ कवि खामो’ा
अपनी नवाजि’ा सुनकर एक ’ोर याद आया--
‘‘ नवाजि’ा पे नवाजि’ा हो रही है
कोई संगीन साजि’ा हो रही है
इधर ‘’ाी’ो का घर तामिर हो रहा है
उधर से पत्थर की बारिस हो रही है’’
अरे मैने ऐसा क्या कर दिया है
मैने तो अपना फर्ज निभाया है पहले भी निभाया था आज भी निभाया
वादा करता हूं आगे भी निभाउंगा
ऐ कवि!
.लिखना है तो
लिख-
घुसपैठियों से
वाकिफ मंत्री का
बस यात्रा क्यों!
.लिखना है तो
लिख--
भूख से तड़पती जन को रोटी के बदले
पोखरण क्यों ..?
लिखना है तो लिख-
हम ’ाहीदों की कीमत
दस लाख बरस लाख क्यों?
लिखना है तो
लिख.......
वरना ऐ कवि
खामो’ा ।

गांव से ‘’ाहर ......


गांव से ’ाहर ‘’ाहर से नगर
नगर से महानगर
.महानगर! महानगर!!
हां भाई! हां
महानगर..........
पहंुचने को पहुंचा पहुंचा तो अंगुली से धर लिया पहुंचा
पहंुचा से कंधा
कंधा से धंधा
धंधा में हो गया गंदा
हां भाई! है। गं...दाकृ
बाद में गांव
याद आया
अपने आप को
नर्क महाराज के गोंद में पाया
अब तक क्या खोया क्या पाया
ब्हुत देर में
समझ आया 3

क1


प्रेम प्रका’ा की कविता



सर के उपर पानी है, चुप रहना नादानी है।
बिज- बिजाते घाव हो तो,
खामो’ाी बेमानी है।
जीवन है तालाब नहीं
ये लहरों की सानी है।
हाल- ए - माजी तू ही कह
जो जमा, कहां वो पानी है।
उठो! पुकार हे वक्त की
चल, लुट रही जवानी है।
सूखे लब औ भूखे पेट
कहती यही कहानी है
सिसक- सिसक घरती मेरी मांग रही कुर्बानी है।

क्लासिक बाय


गंव की सरजमीन की सुगंध ले,
चले थे पलामू के गांव से
मिली जूली संस्कृति ं खड़ा एक ’ाहर रांची ,
परिचय मैने एक नाम के
साथ क्लासिकल बाॅय के साथ
अब तुम्हारे पास ना गांव की संस्कृति बची और
ना बना पाये
नये संस्कृति की पहचान
हर बार तुम मुझे लड़की होने का अहसास दिला चले गये
रात के 9 बजे
घर आने पर प्र’न जब उठाते हो बार बार ’ारीर के उपर इसारा कर उगलियां उठाते रहे हो हर बनायी गयी व्यवस्था के
खिलाफ तुम जब बोलते हो
स्त्री के स्वतंत्रता वही पूरानी बाते दी जाते है थोप
समाज के हर वर्ग के लडकियो को देखा दिन रात हर पल
गली के गली धुमते होगे हर स्थान पर लड़कियां जरूर तुम्हे मिलती होगी
जिन्स वाली माडॅन बन चुकी हैं
उन्हे समाज पुरूष द्वारा बनाएं व्यवस्था का
खिलाफ ही करना है कितना बुरा लगता
जब तुम्हारे विरूध कम उम्र कि लडकियां के
सवाल को दरकिनार कर गये
सलवार वाली सादगी , सुसंस्कृति पूर्ण लगी होगी।
किन्तु तुमने साडी वाली ,
बुरके में रहने वाली
मर्यादित स्त्री पर
कभी ’ाब्द ही नही कहा होगा।
समाज में कई धाराएं हैं संधर्ष नियति बन चुकी है।
उस व्यवस्था के खिलाफ
घर के चार दिवारी पर रह कर तुम भी
प्राच्यवाद संस्कृति में अधिन कन्या ही चाहिए।

संघर्ष

संग- संग चल
संघर्ष तय हैं। देख नया रास्ता बीती बात सुन।
संग- संग चल
संघर्ष तय है
उतर चुका योजना
बना ले एक रास्ता।
संग-संग चल
संघर्ष तय है। जीवन के रास्ते
बना ले तू सहज
संग- संग चल संघर्ष ंतय है।
आज नही कल, जीत तय है,। जड़ता की जड़
उखड़ देंगे हम।
संग- संग चल
संघर्ष तय हैं।

जतरा


ऐसा सुन्दर एक राज्य जतरा ही हो पहचान
वेा कैसा सुन्दर राज्य होगा।
सूरज की किरण के पहले नृत्य का
एक सुन्दर स्वरूप अपना होगा
जिसके के गीतो में आंदोलन का स्वर
ऐ कैसा जीवन हैं
इसमे निमार्ण का समूह बनता
हर एक
आदमी से
गांव की बुनियाद खड़ा।

हे माक्र्स के अनुयायी!



यह
कुटिलधारा है या मिट्टी का लोंधा,
चुप क्यों हो?
क्या काठ मार गया, तुम्हें कामरेड!
‘स्वार्थ की गंगोत्री है बह रही यहां
और तुम
भीष्म पितामह की तरह
हस्तिनापुर से बंधे हो, कामॅरेड!
क्या तब अपनी वेदवाणी शुरू करोगे,
जब कुरूक्षेत्र में सब साथी,
बंधु-बांधव
खेत रह जायेंगे
और
तब युधिष्ठिर की तरह
हमें ज्ञान दोगे
हे कामरेड!
क्या हमारी नियति सिर्फ
युधिष्ठिर की है?
कर्मयोग क्या नहीं है हमारे लिए
क्या निगेशन फाॅर निगेशन का सूत्रवाक्य,
उस तोते की तरह रटा है तुमने,
हे कामरेड!
मैं नहीं कहता कि
प्रसाद को प्रणाम कर खाना
माक्र्सवाद विरोधी है।
मैंने र्बबरिक की तरह
पूरा महाभारत देखा हैः
तेरे अंदर चलने वाला।
अपनी चेतना को गिरवी नहीं रख सकता हूं
कुछ सवाल छोड़े थे तुमने
माक्र्सवाद विरोध का
बहु-बेटियां पटना-दिल्ली में
और अपने गांव में लूट रही है।
रोज एक गांव की कब्र पर खड़ा हो रहा है
किसी शहर का एक मुहल्ला।
कामरेड! मौन क्यों हो?
मानव हड्डियांे की भरमार से,
भरम होता है
हिंदुस्तान नहीं कब्रिस्तान का।
जहां दफन है,
हमारी संस्कृति, नैतिकता, मर्यादाओं के शव।
और तुम कामॅरेड!
जमाना है पेप्सी कोला का
नेट क्रंाति का
और तुम सुना रहे हो
मुझे दास कैपिटल।
क्या यही है वैज्ञानिक समाजवाद
तो क्या अंतर है
वेद और दास कैपिटल में।
तुम कामरेड
तो एक वटवृक्ष हो,
जो अपनी सत्ता बरकरार रखना चाहता है।मगर
वैज्ञानिक माक्र्सवाद
खत्म नहीं हुआ
वह जिंदा है
अपने चाहने वालों के बीच
खेतों में-कारखानों में
विद्रोह
नियति है
पूंजीवादी समाज की
वर्ग के जिंदा रहते
तेरे चाहने से कुछ नहीं होने वाला है
हे छद्मभेषी कामरेड!े
d

तीसरी duniya की तीसरी दुकान। aloka


इस दुकान में क्या- क्या न बिकता।
मानव को इंडिजिनश पियूपल बना देता।
हिन्दी को अग्रेजी बना डाला।
संधर्ष की दुकान चलाया ।
मनुष्य को रंग के अनुरूप।
मैटर बना कर बेच आया।
किमत किससे ज्यादा मिलेगी।
उस भाषण को किताब बनाया।
बैनर पर संस्कृति परम्परा का
प्रोडक्ट लोंच होने का सकेत दे आया।
मानव को फेक्ट्री की तरह
वो इस्तेमाल कर आया।
ग्रामीण बोली हीरा बना।
पहले दुकान आंदोलन का चला।
धीरे- धीरे बच्चे भी उसमें शमिल होते गये।
शिक्षा का महत्व रूप के अनुरूप बना।
पलायन तो कोडी के भाव बिका।
डायन हत्या का मूल्य निधारित नही
अब कचडा साफ कराने में दो करोड़ कमा चुके
स्वास्थ्य विषय बड़ा पुराना है।
इसका बाजार निराला है।
एक नया प्रोडक्ट और लांच हुआ।
मुद्दा बना जंगल का।
देश के कोने -कोने में खोला बड़ा बाजार।
लाखो लोग ने जमकर कमाया।
अब तक न एक पेड़ बचाया।
नारा बना जंगल कटने से
वारिश पर हुआ असर
और खुला एक नया दुकान।
पानी-पानी-पानी का
एक को राहत अब तक न मिली
पानी के बिन जनता लड़ पड़ी।
मुद्दा बना चुनाव का ।
कौन प्रोडक्ट अच्छा है।
किसमें किमत ज्यादा है।
जिसका संबध फाॅरन से है।
लांच कराने वाले सब जानते है।
बड़ी दुकान बड़ा दाम।
छोटी दुकान छोटा दाम।
मेहनत मजदूर कहता एक समान।
फिर भी करता जनता का सम्मान।
तीसरी दुनिया का तीसरी दुकान।
उस दुकान को मेरा सलाम।

प्राकृति ( Aloka )

प्राकृति से लगाव।
इसका अर्थ दुसरा है।
मैं प्राकृति के धुन
और गीत सुनती हूं।
झरने चलते जाते हैं।
छोडते जाते है शब्द ।
तान होती उसमें
गुजरते है जहां से
वातावरण जाता है। बदल-बदल सा
हर मोड पर
सभी के लिए।
धुन और तान एक समान है।
हवा भी साथ में
तान मिलाती है
मानों पत्थर पर टकरा कर नये
सुर ताल बिखेर रहे हो।
लगता है मांदल पर
किसी ने कम्पन्न
पैदा कर दी हो।
पक्षी भी अपने
स्वर रोक नही पाते।
हर कोई की अपनी वाणी।
पिरोये होते सुर में ।
वृक्ष भी इस तान से
दुर नही रह पाता ।
मानों समूह के साथ
अपना स्वर मिला रहा
झिंगूर(कीडे+) भी धरती के
अन्दर स्वर मिलाते है।
जब पूरी वादी एक साथ
झुमर गीत का तान छेड चुका हो
हर कोई अपनी उपस्थिति दर्ज
वहां करा जाते है
यह भी एक युद्ध जैसा ही है।
वे अपने गीतों के माघ्यम से
एकता का ऐलान कर रहा।

मंगलवार, 4 नवंबर 2008

दामिन-इ-कोह की।

दामिन-इ-कोह की।
जीवन एक सुत्र में बंधा था ।
भूल जाऐगे- जंगत के र्दद
बन कर रहेगें राजा-रानी
जंगल के साथ।
कंठ से निकलते मधुर गीत।
स्वपन सुखी समृद्ध समाज का
दिनचर्या होती शुरू।
मुर्गी की बांग से।
जंगल में पैर ना रखा हो इंसान
हुआ था तैयार घने जंगल में
घास- पूस,दीवारो का छोटा सा
गाव संथाल का।
रंग -बिरगी जंगली जानकरों
फूलो तितली के चित्र।
मेहनत खुले आसमान के नीचे
कंद मूल इकट्ठ कर।
शाम को घर को लौटते।
जो मिला खाकर भूख शांत करते।
शुरू होता समूह में गाना, बजाना।
फिर आराम।
कहां गया?
दामिन-इ-कोह के अपना राज।

मूढ़ी का पाइला।

लगती है अच्छी
मूढ़ी वाली
चार पाइला मूढ़ी के बाद
भरी पोलोथिन मूढ़ी में
उपर से डाल देती है
एक मूट्ठी मूढ़ी
हालाकि यह चगनी मंगनी है
कि चार पाइला
मूढ़ी में थोड़ा हिल जाने पर
कुछ मूढि.यां गिर जाती है
ऐसा नही है
पाइला का माप कम हो जाता
फिर भी वो डाल देती है
उस पोलोथिन में मुट्ठी भर मूढ़ी
जैसे विवाह के बाद
बेटी की विदाई के वक्त
मां मुट्ठी भी चावल, हल्दी और दूब
खेाइछा देती है बांध
यह थोडा सा नहीे होता हैंइसमे
प्यार आत्मीयता
गर्माहट और
‘’ाुभकामनाओं का
अनन्त संसार होता है
मुट्ठी भर प्यार
मुट्ठी भर गर्माहट
बस अब
मुट्ठी भर अच्छे लोग।
खजूर की चटाई।
नानी के गांव में
खजूर क पत्ते
और उसकी चटाई
आज जीवित है
सदियों के बाद सर्दियों में
ओढ़ने बिछाने के लिए
मेहमानों के स्वगत के लिए
सम्मान पूर्व बैठने के लिए
आंधी तूफान में खोजते खजूर की चट्टाई
बरसात की झड़ी में
ढ़कने के लिए है मात्र
खजूर की चटाई।
चटाई हर किसी के पास
खलिहान में बैठने की इच्छा
चटाई मिट्टी के उपर डाल
इतमिनान से बुढ़ी औरतें
जीवन को गाते- सुनाते
खजूर के पेड के पत्ते से अनुभव
शहर वापस आते वक्त
चटाई की सुगन्ध
महसूस करते है हम
खजूर की चट्टाई
दिसंबर की रात
जाड़े के साथ
नानी पास होती
खजूर की चटाई
ढ़क कर हमें सुलाती
कंप कपी के ठंड़
बढ़ता था रातों कों
चूल्हे पर लकड़ी
जला कर ठंड से
लडाई,
साथ में खजूर की चट्टाई
आंधी रात को
गांव के सब लोगों ने
खजूर की पत्ती के साथ
जीवन जीना सीख लिया था।
जब मै बड़ी हो गयी
याद करते है।
अपने नानी घर कि कथा
महसूस करते
उस गांव के मुगी- मुर्गी।

पक्षी और घास के दिन
बेल आम कि महक याद आती है।
याद आती है खजूर की चटइ


प्राकृति
प्राकृति से लगाव।
इसका अर्थ दुसरा है।
मैं प्राकृति के धुन
और गीत सुनती हूं।
झरने चलते जाते हैं।
छोडते जाते है शब्द ।
तान होती उसमें
गुजरते है जहां से
वातावरण जाता है।
बदल-बदल सा
हर मोड पर
सभी के लिए।
धुन और तान एक समान है।
हवा भी साथ में
तान मिलाती है
मानों पत्थर पर टकरा कर नये
सुर ताल बिखेर रहे हो।
लगता है मांदल पर
किसी ने कम्पन्न
पैदा कर दी हो।
पक्षी भी अपने
स्वर रोक नही पाते।
हर कोई की अपनी वाणी।
पिरोये होते सुर में ।
वृक्ष भी इस तान से
दुर नही रह पाता ।
मानों समूह के साथ
अपना स्वर मिला रहा
झिंगूर(कीडे+) भी धरती के
अन्दर स्वर मिलाते है।
जब पूरी वादी एक साथ
झुमर गीत का तान छेड चुका हो
हर कोई अपनी उपस्थिति दर्ज
वहां करा जाते है
यह भी एक युद्ध जैसा ही है।
वे अपने गीतों के माघ्यम से
एकता का ऐलान कर रहा।

सन्नाटा ( अलोका)

1सन्नाटा पसरा उस रात ।
थम गयी हो खमोशी
जैसे नरेंद्र मोदी का गुजरात।
दिसंबर की रात,
था घुप अंधेरा,
च्ेाहरे पर था कई चेहरा
2लम्बे समय तक सिर्फ
खौफ, खमोशी और सन्नाटा
काली रात भी विलखती रही
सड़कों पर न जाने क्या-क्या सुलगती रही
हां, था
वो हमारा गुजरात
सन्नाटे में जलती रही रात
3चीख औरतों की
बच्चे गुम हुए औरतों की
सूरज भी बिलखता रहा
और
मां की ला’ा पे’ सिसक कर
सो गया माहताब
हां वही था
हमारा गुजरात


कमसीन बनी श्रमशील।
नया राज्य
पर
जीवन रूका -रूका सा
दिमाग खाली पड़ी
कमसीन बनी श्रमशील
नगे पंाव
चुडा के पोटली
मट मैले कपडे+।
मन में आकंाक्षा।
सब पर भारी भूख
चली ट्रेन से
सूखे आंेठो को
आंसू से भींगाते
कल की चिन्ता महानगर की गली
काम की तलाश
भटकन और भटकन अन्ततः वही जूठन
की सफाई
खेतों- वनों की कुमारी रानी, बेटी, माई
कमसीन
बनी रेजा- कुली- मेहरी
दाई बस
श्रम बेचने वाली श्रम’ाील


नये हस्ताक्षर।

युग का परिवर्तन हुआ
कार्य में सृजन हुआ
एक लम्हा उसके लिए
सिर्फ नये हस्ताक्षर में
विकट परिस्थिति
सहयोगात्मक भाव
निराला इस दुनिया में
घर के रसोई से
कलम भी बोलने लगे
स्त्री चरित्र पर
नये हस्ताक्षर होने लगे
इस युग का गाथा
बेड रूम के मेज
पर सजने लगे
अपने सृजन को
शब्दों को बदला
नये युग में
विचारों को जोड़ा
स्त्री की व्यथ
स्त्री ने ही लिख डाला।
जीवन की कसौटी में
खड़े.किए
नये हस्ताक्षर

दिल्ली में हैं झाड़खण्ड। (अलोका )

श्रमशील
दिल्ली में
ठोकर खा रहे
फुटपाथ पर
झाड़खण्ड का भविष्य
घर छोड.ने पर किया मजबूर ।
गिरतेेे- पड़तेे जी रहे है।
अपनो से दूर
गुम हो रहे है सपने ।
दिल्ली के गलियों में
अपनी ही लोगो से
लूट रही परम्परा; संस्कृति
बस बाजार में।
खो जाती है बड़े नगरो में
बेचती है अपना श्रम
पुछते है आस-पास के लोग
कहते है ............
दिल्ली में है झाड़खण्ड।