मंगलवार, 4 नवंबर 2008

दामिन-इ-कोह की।

दामिन-इ-कोह की।
जीवन एक सुत्र में बंधा था ।
भूल जाऐगे- जंगत के र्दद
बन कर रहेगें राजा-रानी
जंगल के साथ।
कंठ से निकलते मधुर गीत।
स्वपन सुखी समृद्ध समाज का
दिनचर्या होती शुरू।
मुर्गी की बांग से।
जंगल में पैर ना रखा हो इंसान
हुआ था तैयार घने जंगल में
घास- पूस,दीवारो का छोटा सा
गाव संथाल का।
रंग -बिरगी जंगली जानकरों
फूलो तितली के चित्र।
मेहनत खुले आसमान के नीचे
कंद मूल इकट्ठ कर।
शाम को घर को लौटते।
जो मिला खाकर भूख शांत करते।
शुरू होता समूह में गाना, बजाना।
फिर आराम।
कहां गया?
दामिन-इ-कोह के अपना राज।

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