शनिवार, 13 दिसंबर 2008

’ाहीद उवाच

कारगील के ’ाहीदों को समर्पित
ऐ बीर!
.तेरी वीरगंाथा लिखने में
.‘’ाब्दकोष अक्षम है
क्योंकि
सीमा पर
तू और सिर्फ तू ही
सक्षम है। ’ाहीद उवाच
खामो’ा! खामो’ा!! खामो’ा!!!
ऐ कवि खामो’ा
अपनी नवाजि’ा सुनकर एक ’ोर याद आया--
‘‘ नवाजि’ा पे नवाजि’ा हो रही है
कोई संगीन साजि’ा हो रही है
इधर ‘’ाी’ो का घर तामिर हो रहा है
उधर से पत्थर की बारिस हो रही है’’
अरे मैने ऐसा क्या कर दिया है
मैने तो अपना फर्ज निभाया है पहले भी निभाया था आज भी निभाया
वादा करता हूं आगे भी निभाउंगा
ऐ कवि!
.लिखना है तो
लिख-
घुसपैठियों से
वाकिफ मंत्री का
बस यात्रा क्यों!
.लिखना है तो
लिख--
भूख से तड़पती जन को रोटी के बदले
पोखरण क्यों ..?
लिखना है तो लिख-
हम ’ाहीदों की कीमत
दस लाख बरस लाख क्यों?
लिखना है तो
लिख.......
वरना ऐ कवि
खामो’ा ।

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