शनिवार, 13 दिसंबर 2008

तीसरी duniya की तीसरी दुकान। aloka


इस दुकान में क्या- क्या न बिकता।
मानव को इंडिजिनश पियूपल बना देता।
हिन्दी को अग्रेजी बना डाला।
संधर्ष की दुकान चलाया ।
मनुष्य को रंग के अनुरूप।
मैटर बना कर बेच आया।
किमत किससे ज्यादा मिलेगी।
उस भाषण को किताब बनाया।
बैनर पर संस्कृति परम्परा का
प्रोडक्ट लोंच होने का सकेत दे आया।
मानव को फेक्ट्री की तरह
वो इस्तेमाल कर आया।
ग्रामीण बोली हीरा बना।
पहले दुकान आंदोलन का चला।
धीरे- धीरे बच्चे भी उसमें शमिल होते गये।
शिक्षा का महत्व रूप के अनुरूप बना।
पलायन तो कोडी के भाव बिका।
डायन हत्या का मूल्य निधारित नही
अब कचडा साफ कराने में दो करोड़ कमा चुके
स्वास्थ्य विषय बड़ा पुराना है।
इसका बाजार निराला है।
एक नया प्रोडक्ट और लांच हुआ।
मुद्दा बना जंगल का।
देश के कोने -कोने में खोला बड़ा बाजार।
लाखो लोग ने जमकर कमाया।
अब तक न एक पेड़ बचाया।
नारा बना जंगल कटने से
वारिश पर हुआ असर
और खुला एक नया दुकान।
पानी-पानी-पानी का
एक को राहत अब तक न मिली
पानी के बिन जनता लड़ पड़ी।
मुद्दा बना चुनाव का ।
कौन प्रोडक्ट अच्छा है।
किसमें किमत ज्यादा है।
जिसका संबध फाॅरन से है।
लांच कराने वाले सब जानते है।
बड़ी दुकान बड़ा दाम।
छोटी दुकान छोटा दाम।
मेहनत मजदूर कहता एक समान।
फिर भी करता जनता का सम्मान।
तीसरी दुनिया का तीसरी दुकान।
उस दुकान को मेरा सलाम।

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