शनिवार, 13 दिसंबर 2008

जो सोचा नहीं

सोच रहा हूं
जो बोया नहीं
नोंच रहा हूं
आग- आग सहर में
बहार सेाच रहा हूं
टूटे पड़े तार बिखरे हैं साज
और-
तान सोच रहा हूं
बिखरे- बिखरे ‘’ाब्दों में
अक्षर- अक्षर रो रहा
बम- पिस्टल खेत में
उगेगा, झूमेा धान की बाली ‘
सोच रहा हूं
क्या कहंू, क्या करूं?
डलझे- एलझे मौसम में
गाने की सोच रहा हूं
रात में डरकर
भूख से भागकर
होता नहीं है कुछ यहां इसीलिए जो अंट नहीं सकती
वही बात
वही विचार वही जज्बात
दिमाग में
सबी
कोंच रहा हूं।

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