शनिवार, 13 दिसंबर 2008

हे माक्र्स के अनुयायी!



यह
कुटिलधारा है या मिट्टी का लोंधा,
चुप क्यों हो?
क्या काठ मार गया, तुम्हें कामरेड!
‘स्वार्थ की गंगोत्री है बह रही यहां
और तुम
भीष्म पितामह की तरह
हस्तिनापुर से बंधे हो, कामॅरेड!
क्या तब अपनी वेदवाणी शुरू करोगे,
जब कुरूक्षेत्र में सब साथी,
बंधु-बांधव
खेत रह जायेंगे
और
तब युधिष्ठिर की तरह
हमें ज्ञान दोगे
हे कामरेड!
क्या हमारी नियति सिर्फ
युधिष्ठिर की है?
कर्मयोग क्या नहीं है हमारे लिए
क्या निगेशन फाॅर निगेशन का सूत्रवाक्य,
उस तोते की तरह रटा है तुमने,
हे कामरेड!
मैं नहीं कहता कि
प्रसाद को प्रणाम कर खाना
माक्र्सवाद विरोधी है।
मैंने र्बबरिक की तरह
पूरा महाभारत देखा हैः
तेरे अंदर चलने वाला।
अपनी चेतना को गिरवी नहीं रख सकता हूं
कुछ सवाल छोड़े थे तुमने
माक्र्सवाद विरोध का
बहु-बेटियां पटना-दिल्ली में
और अपने गांव में लूट रही है।
रोज एक गांव की कब्र पर खड़ा हो रहा है
किसी शहर का एक मुहल्ला।
कामरेड! मौन क्यों हो?
मानव हड्डियांे की भरमार से,
भरम होता है
हिंदुस्तान नहीं कब्रिस्तान का।
जहां दफन है,
हमारी संस्कृति, नैतिकता, मर्यादाओं के शव।
और तुम कामॅरेड!
जमाना है पेप्सी कोला का
नेट क्रंाति का
और तुम सुना रहे हो
मुझे दास कैपिटल।
क्या यही है वैज्ञानिक समाजवाद
तो क्या अंतर है
वेद और दास कैपिटल में।
तुम कामरेड
तो एक वटवृक्ष हो,
जो अपनी सत्ता बरकरार रखना चाहता है।मगर
वैज्ञानिक माक्र्सवाद
खत्म नहीं हुआ
वह जिंदा है
अपने चाहने वालों के बीच
खेतों में-कारखानों में
विद्रोह
नियति है
पूंजीवादी समाज की
वर्ग के जिंदा रहते
तेरे चाहने से कुछ नहीं होने वाला है
हे छद्मभेषी कामरेड!े
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