रणेन्द्र
जानता हूँ तुम
रजतपट से बाहर आई
नन्दिता दास, रेखा, स्मिता
नहीं हो,
न ही
महाकाव्यों के पन्नों से छिटकी,
द्रौपदी-कृष्णा हो,
न मत्स्यगन्धा, न तिलोत्तमा ।
पर
तुम कौन हो ?
स्वर्णमृगी !
जिसकी एक झलक पा
व्यग्र हो गई हैं
सीता सी
मेरी कोरी कामनाएँ !
मुझे मालूम नहीं
मेरी निगाहें
राम सी
धनुर्धारी हैं या नहीं
किन्तु
अभी तो
यह भी तय नहीं
कि कौन व्याध है
और कौन शिकार
कि लोगों ने
यह निर्णय दे दिया
कि हमने
लक्ष्मण रेखा लांघी है
अब अभिशाप है
और हम हैं
काली रात सा कलंक है
हमारे माथे पर
दिठौने-सा .............