बुधवार, 8 जुलाई 2009

सांवरी-1

रणेन्द्र

जानता हूँ तुम
रजतपट से बाहर आई
नन्दिता दास, रेखा, स्मिता
नहीं हो,
न ही
महाकाव्यों के पन्नों से छिटकी,
द्रौपदी-कृष्णा हो,
न मत्स्यगन्धा, न तिलोत्तमा ।
पर
तुम कौन हो ?
स्वर्णमृगी !
जिसकी एक झलक पा
व्यग्र हो गई हैं
सीता सी
मेरी कोरी कामनाएँ !

मुझे मालूम नहीं
मेरी निगाहें
राम सी
धनुर्धारी हैं या नहीं
किन्तु
अभी तो
यह भी तय नहीं
कि कौन व्याध है
और कौन शिकार

कि लोगों ने
यह निर्णय दे दिया
कि हमने
लक्ष्मण रेखा लांघी है
अब अभिशाप है
और हम हैं
काली रात सा कलंक है
हमारे माथे पर
दिठौने-सा .............




सांवरी-2

समुद्र मंथन की कथा,
विवरण और विस्तार से
नहीं मैं सुपरिचित
अमृत - कलश
देव - दानव संघर्ष
विष्णु-मोहिनी रूप का
नहीं मैं गवाह
किन्तु
पुराणकारों ने जिसे छुपाया,
न गाया गीत
जिसका कवियों ने
समुद्र-मंथन से ही निकली
वह अमूल्य निधि
तेरे चेहरे का नमक
........................
जिसका मैं गवाह हूँ
रणेन्द्र
जिसे
देव वरूण ने
स्वयं अँजुरी भर-भर
न्यौछावर किया
तुम पर
तुम्हारे जामुनी रंग पर
और स्वयं ही धन्य हुए
तुम्हारी निगाहों से
नाक की तीखी कोर से
पसीने की बूँद से बिखरता
नमक का एक कण
शत-शत अमृत कलशों पर
भारी है
हे साँवरी !

सांवरी-3

रणेन्द्र

देह है
या देह नहीं है
शाश्वत प्रश्न यह कि
सिर्फ रूह है -
खुशबू भरी
कि देह भी है
देह तो घर भी है
बिस्तर भी
स्पंदनहीन, आवेगहीन
कामनाओं-सी रीती
सिर्फ आदत
और ऊब.....................
मानो एक मुठ्ठी रेत
रोज गिरती हो
रूह पर...................जिसकी खुशबू
युगों पूर्व
गुम हो गई हो
कपूर सी ।
सच कहूँ तो
तुम अश्विनीकुमारों की
वरदान हो
मेरी द्वितीया !
(या अद्वितीया !)
तुम्हारे
लावण्य के एक परस ने
मनो-मन
रेत गला दी है
कालचक्र को उलट
संभव किया है
किशोर हो जाना
मेरे मन का
पुनर्नव !
कि जैसे
अपनी ही राख से
फिर जाग गया हो
ककनूस पंछी
इच्छाओं की उत्ताल-
लहरों को
सीने में समोए
वृन्त पर इकलौते
पीपल पत्ते सा थरथराता
नेह-आतुर, स्पर्श-कातर
तुम्हारी देह की चाँदनी में
बिछल-बिछल जाता
यह चिर किशोर
तुम्हारा आभारी है
मेरी उर्वशी !
+ऋषि श्वेतकेतु के
इस छतनार गाछ,
मंत्र अभिरक्षित
पुरातन सुरक्षित
पारम्परिक
परिणय के लिए
तुम
पतझड़ हो, विष हो
अभिशाप हो, कलंक हो,
पर सच तो यह है
तपती रेत सी
हमारी एषणाओं के लिए
पवित्र सात्विक
अमृत-धार हो तुम
मेरी कृष्णा !
हे मेरी मैत्रेयी !
तुमने ही तो
नवमंत्र दिया
मुझे दीक्षित किया
कि
यह देह भी सत्य है
रूह भी
और
अलौकिक खुशबू भी ।

वह हँसती है तो

रणेन्द्र

वह हँसती है तो
पलाश वन में
लग जाती है आग
धधकती लपकती लौ
अंतरिक्ष की ओर
सूर्योदय तक
लहकता रहता है क्षितिज
वह हँसती है तो
बरस जाते हैं बादल
गहरे हरे
चमचम पत्ते
बदल जाते हैं
पखेरूओं में
वनपाखियों के कलरव से
गूँजता है दिगन्त
सकुचा जाते हैं
बहेलियों के जाल

हँसी है कि

हँसी है कि
उड़ती
डोलती फिरती हैं
तितलियाँ
दंतपंक्तियों की द्युति से दमकती
श्वेत शुभ्र तितली
पुतलियों की राह
मन में
उतरती है तो
अन्तर्लोक में
होता है
सूर्योदय
टेसू फूल होठों से
उड़ती तितलियाँ
नसों में
उतरती हैं तो
तेज-तेज प्रवाह में
आता है उफान
ऊँचा उठता ज्वार
नीले आसमान के पार
जिसके मार से
बिखर जाते हैं अणु-अणु,
उड़ती है रेत
लहराते आँचल से
उड़ी तितलियाँ
मन के
हजारों हजार
द्वारों के पार अथाह थार
रेत को
भिगोंती है बारिश
खिल-खिल जाती हैं
ढेरो सूरजमुखियाँ
वह स्त्री है
कि अगरु गंध
चाँदनी या स्मृति
या स्मृति की कील पर
लटकती कोई पेन्टिंग
या दूर भटकती
विरह की धुन
वह स्त्री है
या सिर्फ हँसी

हँसी

रणेन्द्र

1 वह हँसती है
मानो स्त्री न हो
सिर्फ हँसी हो
कौंधती है हँसी,
तीखे, नुकीले, बनैले
शब्दों के सामने
दमक से
कुन्द करती है
सबकी धार
हँसी है
अनवरत झरता
झरना,
शीतल, पारदर्शी
चमकते जल के पास
ठिठक गए हैं
सियाने शिकारी,
व्यग्र ब्याध सँपेरों के पाँव
हँसी है
रिमझिम बारिश,
भींगता है जंगल
पुराने नये पेड़
सूखी हरी पत्तियाँ
शाखाएँ, तने, जड़
पशु, पंछी, कीड़े, सरीसृप
धोना चाहती है
सबके धूल
मैल
विष सारे
हँसी है
कि धैर्य,
टूटेगा तो
आयेगी बाढ़

बारिश...3

रणेन्द्र

सूर्य की परिक्रमा
करती है पृथ्वी
और पृथ्वी का
चन्द्रमा
पपीहे की टीस
चातकी की पुकार
क्रौंच का क्रन्दन
आह, दाह, आकर्षण यह
प्रकृति है
सरस-सहज प्रकृति
पर इन्द्र को
नहीं ये स्वीकार
ना कुबेर
ना दिक्पालों को
होगी
ओलों की बौछार
कतरा-कतरा बर्फ
जमेगी जमायेगी
बुझायेगी सारी आँच
चहुँओर
शीत प्रकम्पित परिवेश
ठिठुरती-ठिठुराती रात
नितान्त सूनापन
पर दूर है
शेष एक अलाव
मद्धम मद्धम धाह
निरीह कातर नेह है
महसूसना
आवाज न देना
सुन लेगा इन्द्र
सुनेंगे कुबेर
दिक्पाल भी
शीत लहरें
गला जकड़ लेगी
नीला होगा लहू
सुफेद कागज काया
मौन और दूरी की
गुजारिश और गुंजाइश
हिचकी-सिसकी नहीं
विलाप-रुदन नहीं
पलकों से ना
अन्तर्लोक में हो बारिश

बारिश...2

रणेन्द्र



नीले आसमान के दुकूल को
कमर से लपेट
बादलों की ऊनी चादर
काँधे से ओढ़ा है
शायद
थरथराहट थमे
ढँक गये हैं
सूरज-चाँद के कुंडल
प्रकम्पित है पृथ्वी
इच्छाओं की सुगन्ध
हवा में तैर रही है,
निगाहों में चमक रही हैं
बिजलियाँ
पेशानी पर स्वेद कण
दिशाएँ
मौन साधे खड़ी हैं
तय है
इसी क्षण होगी बारिश

बारिश..1

रणेन्द्र

असंख्य निगाहों के ताप को
अनदेखा करती
कामनाओं की नदी
उफन रही है,
संयम टूटे
उसके पूर्व
भाप होना चाहता हूँ
अदृश्य ऊष्म उच्छवास,
नीले आकाश के मड़वे तले
खो जाना चाहता हूँ
तुम्हारे
ऊदे श्वेत श्याम
उत्तरीय में,
आषाढ़ के प्रथम दिवस
श्रावणी पूर्णिमा
हस्ती नक्षत्र स्वाति
जब जी चाहेछोड़ देना
. . यूँ ही,
गिर कर बिखर जाऊँगा कहीं भी
धूप-धूल-मिट्टी
नदी-नाला-जंगल
कछार-थार-पठार,
कहीं भी. . . उफ भी नहीं करुँगा
कोई शिकवा-शिकायत नहीं
असंख्य - अनन्त बून्दंे
यूँ ही तो
बिछुड़ती हैं
लोग कुछ भी कहते रहें
जैसे बारिश. . . .।

शनिवार, 10 जनवरी 2009

राजधानी एक्सप्रेस

खगेंदर ठाकुर


राजधानी से राजधानी तक

जाती है राजधानी एक्सप्रेस

राजधानी के समकक्ष

नगरों में रूकती है राजधानी एक्सप्रेस।

छोटे-छोटे “ाहरों ओर कस्बों से,

भारत की आत्मा को बसाने वाले गाँवों को

धूल चटाती है राजधानी एक्सप्रेस

खेतों की हरियाली को धूमिल बनाती है

धम-धम करती भागती राजधानी एक्सप्रेस

यात्रा जो करते हैं राजधानी एक्सप्रेस में

दिखायी नहीं पड़ती उनकी काया

उनको जो ताकते रहते हैं बाहर से,

राजधानी एक्सप्रेस के

रूप, रंग और रफ्तार को देख-देख

सोचते रहतें हैं वे कि

हमारी बगल से दौड़ती चली जाती है

वह भी क्या रेलगाड़ी है?

रेलगाड़ी है तो यहाँ अपने स्टे”ान पर

क्यों नहीं रूकती है राजधानी एक्सप्रेस?

उन्हें सवार होने का मौका

क्यों नहीं देती राजधानी एक्सप्रेस?

वे “ाायद नहीं जानते और

जान लेंगे जब तो कैसा लगेगा इन्हें कि

बाहर की हवा नहीं जा सकती उसके भीतर

उसके भीतर की हवा नहीं आती बाहर

कोई ताल्लुक नहीं दोनों हवाओं में,

बाहर का मौसम

दम तोड़देता है उसके दरवाजे पर

राजधानी का अपना मौसम है

“ाीतताप नियंत्रित वह सब दिन

उसमें सवार लोगों के कहने पर

घटता-बढ़ता है हवा का तापमान

सुना है, जैसा होता था

रावण के महल में

नहीं होते रावण की तरह

फिर भी वे लेते है मजा

सोने-से दिन और चाँदी-सी रातों का

पानी भरते हैं वहाँ वरूणदेव

न विभी’ाण को उनसे एतराज

और न राम उनसे नाराज+

राजधानी से चलकर

राजधानी के लिए

राजधानी की बनकर

राजधानी को जाती है

हमे”ाा राजधानी में

राजधानी पर रहती है

राजधानी एक्सप्रेस

भारत की आत्मा वाले लोग

दबी ज+बान से कहते हैं-

हे राजधानी एक्सप्रेस

हम राजधानी से दूर

हमारे प्रतिनिधि चढ़ते हंै

राजधानी एक्सप्रेस पर

हम तो खु”ा हैं यहाँ

तुम्हारी धूल फाँक कर

और तेज+ हवा पी कर

हम परम प्रसन्न हैं जान कर कि

हमारे दे”ा में ट्रेन भी होती है राजधानी

एकदम रोबदार राजधानी की तरह

हमारे पूरे इलाके को दहलाती हुई

प्रायः रात में गुजरती है

राजधानी एक्सप्रेस, फिर भी

भारत की आत्मा धड़कने लगती है

सन्नाटे को चीरते हुए

सन्नाटे को गहराते हुए

रो”ानी की कलम लिए

भाग जाती है राजधानी एक्सप्रेस।

हम गौरान्वित हैं

इस राजधानी एक्सप्रेस से

अँधेरे में रह कर भी।


वह जूता

खगेन्द्र ठाकुर

देखा था आपने उस दिन
वह जो जूते जैसा दिखा
वह क्या सचमुच जूता था?
दुनिया भर से वह जूता ही दिखा
दुनिया भर ने उसे जूता नहीं समझा
लेकिन प्र”न यह है कि
जार्ज बु”ा ने उसे क्या समझा?
क्या वह जार्ज बु”ा के पैर के लिए था?
नहीं, वह तो उसके चेहरे के लिए था?
जो चेहरे को नि”ााना बनायें
वह कैसे हो सकता है जूता?
आपने देखा उस दिन
कितना अभ्यास किया था
महान् अमेरीका के रा’ट्रपति ने
जूते का नि”ााना झेलने का
साम्राज्यवाद के चहेतों ने
दुनिया भर में राहत की साँस ली
और लंबी साँस फेंकते हुए कहा-
धन्यवाद हे प्रभु!
यह तुम्हारा ही चमत्कार हैं कि
साफ बच गया जार्ज का चेहरा,
लेकिन जार्ज बु”ा से पूछा आपमें
जूते से बच गया क्या उनका चेहरा
पूछ देखिए ज+रा जार्ज से
वह न बोले सच-सच तो
उसका चेहरा देखिए
चेहरे पर अंकित है उसका मन
उसका चेहरा जैसे लैपटाॅप
चेहरे पर जूता नहीं,
लिखा है भीतरमार करने वाला मिसाइल
जैसे वह चेहरा न होकर हो गया
वल्र्ड ट्रेड सेंटर का सूचना-पट्ट,
जार्ज बु”ा की आँखों में देखिए
डूबता हुआ अमेरीकी जहाज+,
वह वि”वविजेता गर्व से मदमाता
काँपता हुआ क्यों था
वह हाँफता हुआ क्यों था?
वह हल्का-सा जूता ही तो था
लेकिन जार्ज की आँखें कहती हैं-
नहीं, वह जूता नहीं था
उसने पैर से विद्रोह कर दिया था
जूते के आकार में
कुछ और ही था वह,
प्रकार कुछ भिन्न था
जूते ने आकार से
समझा आपने आज के युग का तकाज+ा
जो जैसा होता है
वह वैसा दिखता नहीं है
यह तो मंत्र है उन्हीं का
जैसा हो, तैसा मत दिखो,
तो वह जूता भी जूते जैसा नहीं दिखा
कैसा था वह समझो तुम
उस जूते ने हटा दिया मुखौटा
जो था जार्ज के चेहरे पर
जूते ने खुद से कहा-
जूते के लायक है वह चेहरा
चेहरा जो नहीं डूबा
अतलांतिक या प्र”ाांत में
डूब गया वह जूते के डर से
छोटे से अरब सागर की
बड़ी-बड़ी आँखों में
समझदारों ने कहा-
अरे बड़ा किमती है वह जूता
जाहिर है बाजार के दबाव में
और स्वतंत्रता के तकाज+े में
वे लगाने लगे मोल जूते का
बहुतेरे चहेते निकल आये जूते के
आहत जनता का जूता
जो फेंका गया हत्यारे पर
अनमोल हो गया वह,
जूते से चाहे जो खरीदे-बेंचे
लेकिन इतिहास में रहेगा वह सब दिन
स्वतंत्रता के पाॅलि”ा से चमकता
कहाँ बना था वह जूता
आज तक नहीं बना
किसी कारखाने में ऐसा जूता
जो आदमी का पैर नहीं
ताना”ााह का चेहरा खोज रहा था,क्या वह चमड़े से बना था?
वह तो ढला था
स्वतंत्र चेतन मन में
इसीलिए लगता था वह
उन्मुक्त मन के आकार का,
ऐसे जूते की मार खाने का अभ्यस्त
भौतिक चोट से बच कर भी
क्या बच सका चोट से?
दुनिया भर को आतंकित करने वाला
खुद इतना आतंकित क्यों था
स˜ाम तो ज+रा भी नहीं डरा था
जब जल्लाद उसे फांसी दे रहे थे,
स˜ाम की आँखों में तैर रही थी स्वतंत्रता
बु”ा की आँखें में डूब रही थी गुलामी,
देख लें फुकयामा, हटिंगटन, डोनियल बेल
इतिहास का नया अध्याय
लिखा जाता है जूते से
मनु’यता और जनतंत्र के आभाव में
फैल रहा है वह स्वतंत्रता के वातास में
मैं चाहता हूँ वह जूता अमर रहे
वह जूता अविना”ाकारी हो
सदा विकास करे वह जूता
मेरे दिल में,
मेरे हाथों में हो वह ताकि
फेंक सके जो वह जूता
हत्या, गुलामी और लूट पर
पत्रकार ज+ेदी न फेंका जूता
वह तो असल में संप्रभु इराक ने फेंका था
क्या मनमोहन सिंह और आडवाणी
फेंक सकते हैं वह जूता!
आसान नहीं है जूता फेंकना, इन पर,
नहीं है कुछ लेना-देना बु”ा जैसों से,
वही न फेंक सकता है उन पर जूता,
परंपरा कहती है
जो ”िाव जी का धनु’ा तोड़ता है
वही फेंकता है जूता बु”ा पर
दस हज+ार राजे भी नहीं हिला सके थे उसे
दस हज+ार हत्यारे भी
नहीं हिला सकते इसे
लिबर्टी से ऊपर हो गया वह जूता
जो चमड़े का होकर भी
चमड़का नहीं था,
स्वतंत्रता और जनतंत्र का
अनोखा प्रतीक वह जूता
जो पैर से निकल चेहरा ढूँढ रहा था
उस जूते का हो भूमंडलीकरण
हर दिल में हो उसका निजीकरण
कभी न हो उसका उदारीकरण
कभी न हो उसका बाजारीकरण
उस जूते का हो मानवीकरण
रहे इतिहास पर वह जूता
वह जूता जीतेगा एक दिन
तब होगी “ाांति चारों ओर
हम घूमेंगे दिये हाथों में हाथ
चलेंगे निर्भय हम साथ-साथ।