इतवा मुंडा
शादी के रास्ते में बिछड़ गये
कमर हिला के चली थे तुम
बेनी गांठे हुए चमक रही थी
देखकर मोहित हुवा प्रियतम
मेरा मन तुमको पसंद किया
दिल के अन्दर खुशिया भर आई
मेरे चरणों को तुम धोई
जीवन साथी बनाने के लिए पर
मुर्गे की तरह प्रियतम तुमने
लात मर कर भगा दिए हमे
,
सीने के अन्दर मेरा प्राण जा रहा है
,
हमने लेबेद गांव गए थे, तो ,
तुम लकड़ी लेन के बहाने जंगल गई
प्यारी माँ ने मरे
पांव को धोये
सीने के अन्दर मेरे प्राण उड़ गया,
तुम्हे रत में सपनी में देखता हु,
दिन में तेरी याद में डूबा रहता हु,
खाना पीना छोड़ दिया हु,
पागल की तरह घूम रहा हु,
सोमवार, 26 जुलाई 2010
.हमारा राज्य अति सुन्दर
एतवा मुण्डा गरूडपिडी
हमारा गांव - हमारा राज्य अति सुन्दर
स्वर्ण से भी दुगुणा,
ळमसब नहीं छोड़ेगे,
ज्ीवन के अंतिम संासां तक लडेंगे, पर
ळमलोग नहीं छोंडेे+गे।
ळमारे यहां सोना चांदी
लोहा, कोयला खनिलों का भण्डार है,
ळमलोग नहीं छोड़ेंगे।
काम@ काज मेहनत से करेंगे
हम सब नहीं छोडे+ंगे।
नदी के तराईयों मं सुन्दर खेत
सोना रूपा की भांति नृत्य आखाड़ा
हमलोग नहीं छोड़ेगे,
जंगल पहाड़ों से सभायमान है
हम नहीं छोडें+गे।
जबतक चांद सूरज रहेगा,
हमारी लड़ाई चलता रहेगा,
हमलोग नहीं छोड़ेगे।
जीविन के अंतिम सांसो तक लड़ेगे।
हम लोग नहीं छोड़ेगे।
हमारा गांव - हमारा राज्य अति सुन्दर
स्वर्ण से भी दुगुणा,
ळमसब नहीं छोड़ेगे,
ज्ीवन के अंतिम संासां तक लडेंगे, पर
ळमलोग नहीं छोंडेे+गे।
ळमारे यहां सोना चांदी
लोहा, कोयला खनिलों का भण्डार है,
ळमलोग नहीं छोड़ेंगे।
काम@ काज मेहनत से करेंगे
हम सब नहीं छोडे+ंगे।
नदी के तराईयों मं सुन्दर खेत
सोना रूपा की भांति नृत्य आखाड़ा
हमलोग नहीं छोड़ेगे,
जंगल पहाड़ों से सभायमान है
हम नहीं छोडें+गे।
जबतक चांद सूरज रहेगा,
हमारी लड़ाई चलता रहेगा,
हमलोग नहीं छोड़ेगे।
जीविन के अंतिम सांसो तक लड़ेगे।
हम लोग नहीं छोड़ेगे।
शुक्रवार, 23 जुलाई 2010
अभी तो
रणेन्द्र
शब्द सहेजने की कला
अर्थ की चमक, ध्वनि का सौन्दर्य
पंक्तियों में उनकी सही समुचित जगह
अष्टावक्र व्याकरण की दुरूह साधना
शास्त्रीय भाषा बरतने का शऊर
इस जीवन में तो कठिन
जीवन ही ठीक से जान लूँ अबकी बार
जीवन जिनके सबसे खालिस, सबसे सच्चे, पाक-साफ, अनछूए
श्रमजल में पल-पल नहा कर निखरते
अभी तो,
उनकी ही जगह
इन पंक्तियों में तलाशने को व्यग्र हूँ
अभी तो,
हत्यारे की हंसी से झरते हरसिंगार
की मादकता से मताए मीडिया के
आठों पहर शोर से गूँजता दिगन्त
हमें सूई की नोंक भर अवकाश देना नहीं चाहता
अभी तो,
राजपथ की
एक-एक ईंच सौन्दर्य सहजने
और बरतने की अद्भुत दमक से
चैंधियायी हुई हैं हमारी आँखें
अभी तो,
राजधानी के लाल सूर्ख होंठों के लरजने भर से
असंख्य जीवन, पंक्तियों से दूर छिटके जा रहे हैं
अभी तो,
जंगलों, पहाड़ों और खेतों को
एक आभासी कुरूक्षेत्र बनाने की तैयारी जोर पकड़ रही है
अभी तो,
राजपरिवारों और सुख्यात क्षत्रिय कुलकों के नहीं
वही भूमिहीन, लघु-सीमान्त किसानों के बेटों को
अलग-अलग रंग की बर्दियाँ पहना कर
एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा कर दिया गया है
लहू जो बह रहा है
उससे बस चन्द जोड़े हांेठ टहटह हो रहे हैं
अभी तो,
बस्तर की इन्द्रावती नदी पार कर गोदावरी की ओर बढ़ती
लम्बी सरल विरल काली रेखा है
जिसमें मुरिया, महारा, भैतरा, गड़बा, कोंड, गोंड
और महाश्वेता की हजारांे-हजार द्रौपदी संताल हैं
अभी तो,
जीवन सहेजने का हाहाकार है
बूढ़े सास-ससुर और चिरई-चुनमुन शिशुओं पर
फटे आँचल की छाँह है
जिसका एक टुकड़ा पति की छेद हुई छाती में
फँस कर छूट गया है
अभी तो,
तीन दिन-तीन रात अनवरत चलने से
तुम्बे से सूज गए पैरों की चीत्कार है
परसों दोपहर को निगले गए
मड़ुए की रोटी की रिक्तता है
फटी गमछी और मैली धोती के टुकड़े
बूढ़ों की फटी बिबाईयों के बहते खून रोकने में असमर्थ हैं
निढ़ाल होती देह है
किन्तु पिछुआती बारूदी गंध
गोदावरी पार ठेले जा रही है
अभी तो,
कविता से क्या-क्या उम्मीदे लगाये बैठा हूँ
वह गेहूँ की मोटी पुष्ट रोटी क्यों नही हो सकती
लथपथ तलवों के लिए मलहम
सूजे पैरों के लिए गर्म सरसों का तेल
और संजीवनी बूटी
अभी तो,
चाहता हूँ कविता द्रौपदी संताल की
घायल छातियों में लहू का सोता बन कर उतरे
और दूध की धार भी
ताकि नन्हे शिशु तो हुलस सकें
लेकिन सौन्दर्य के साधक, कलावन्त, विलायतपलट
सहेजना और बरतना ज्यादा बेहतर जानते हैं
सुचिन्तित-सुव्यवस्थित है शास्त्रीयता की परम्परा
अबाध रही है इतिहास में उनकी आवाजाही
अभी तो,
हमारी मासूम कोशिश है
कुचैले शब्दों की ढ़ाल ले
इतिहास के आभिजात्य पन्नों में
बेधड़क दाखिल हो जाएँ
द्रौपदी संताल, सी0के0 जानू, सत्यभामा शउरा
इरोम शर्मिला, दयामनी बारला और ..... और .....
गोरे पन्ने थोड़े सँवला जाएँ
अभी तो,
शब्दों को
रक्तरंजित पदचिन्हों पर थरथराते पैर रख
उँगली पकड़ चलने का अभ्यास करा रहा हूँ
शब्द सहेजने की कला
अर्थ की चमक, ध्वनि का सौन्दर्य
पंक्तियों में उनकी सही समुचित जगह
अष्टावक्र व्याकरण की दुरूह साधना
शास्त्रीय भाषा बरतने का शऊर
इस जीवन में तो कठिन
जीवन ही ठीक से जान लूँ अबकी बार
जीवन जिनके सबसे खालिस, सबसे सच्चे, पाक-साफ, अनछूए
श्रमजल में पल-पल नहा कर निखरते
अभी तो,
उनकी ही जगह
इन पंक्तियों में तलाशने को व्यग्र हूँ
अभी तो,
हत्यारे की हंसी से झरते हरसिंगार
की मादकता से मताए मीडिया के
आठों पहर शोर से गूँजता दिगन्त
हमें सूई की नोंक भर अवकाश देना नहीं चाहता
अभी तो,
राजपथ की
एक-एक ईंच सौन्दर्य सहजने
और बरतने की अद्भुत दमक से
चैंधियायी हुई हैं हमारी आँखें
अभी तो,
राजधानी के लाल सूर्ख होंठों के लरजने भर से
असंख्य जीवन, पंक्तियों से दूर छिटके जा रहे हैं
अभी तो,
जंगलों, पहाड़ों और खेतों को
एक आभासी कुरूक्षेत्र बनाने की तैयारी जोर पकड़ रही है
अभी तो,
राजपरिवारों और सुख्यात क्षत्रिय कुलकों के नहीं
वही भूमिहीन, लघु-सीमान्त किसानों के बेटों को
अलग-अलग रंग की बर्दियाँ पहना कर
एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा कर दिया गया है
लहू जो बह रहा है
उससे बस चन्द जोड़े हांेठ टहटह हो रहे हैं
अभी तो,
बस्तर की इन्द्रावती नदी पार कर गोदावरी की ओर बढ़ती
लम्बी सरल विरल काली रेखा है
जिसमें मुरिया, महारा, भैतरा, गड़बा, कोंड, गोंड
और महाश्वेता की हजारांे-हजार द्रौपदी संताल हैं
अभी तो,
जीवन सहेजने का हाहाकार है
बूढ़े सास-ससुर और चिरई-चुनमुन शिशुओं पर
फटे आँचल की छाँह है
जिसका एक टुकड़ा पति की छेद हुई छाती में
फँस कर छूट गया है
अभी तो,
तीन दिन-तीन रात अनवरत चलने से
तुम्बे से सूज गए पैरों की चीत्कार है
परसों दोपहर को निगले गए
मड़ुए की रोटी की रिक्तता है
फटी गमछी और मैली धोती के टुकड़े
बूढ़ों की फटी बिबाईयों के बहते खून रोकने में असमर्थ हैं
निढ़ाल होती देह है
किन्तु पिछुआती बारूदी गंध
गोदावरी पार ठेले जा रही है
अभी तो,
कविता से क्या-क्या उम्मीदे लगाये बैठा हूँ
वह गेहूँ की मोटी पुष्ट रोटी क्यों नही हो सकती
लथपथ तलवों के लिए मलहम
सूजे पैरों के लिए गर्म सरसों का तेल
और संजीवनी बूटी
अभी तो,
चाहता हूँ कविता द्रौपदी संताल की
घायल छातियों में लहू का सोता बन कर उतरे
और दूध की धार भी
ताकि नन्हे शिशु तो हुलस सकें
लेकिन सौन्दर्य के साधक, कलावन्त, विलायतपलट
सहेजना और बरतना ज्यादा बेहतर जानते हैं
सुचिन्तित-सुव्यवस्थित है शास्त्रीयता की परम्परा
अबाध रही है इतिहास में उनकी आवाजाही
अभी तो,
हमारी मासूम कोशिश है
कुचैले शब्दों की ढ़ाल ले
इतिहास के आभिजात्य पन्नों में
बेधड़क दाखिल हो जाएँ
द्रौपदी संताल, सी0के0 जानू, सत्यभामा शउरा
इरोम शर्मिला, दयामनी बारला और ..... और .....
गोरे पन्ने थोड़े सँवला जाएँ
अभी तो,
शब्दों को
रक्तरंजित पदचिन्हों पर थरथराते पैर रख
उँगली पकड़ चलने का अभ्यास करा रहा हूँ
सोमवार, 19 जुलाई 2010
ई मेल में तस्वीर
ई मेल में तस्वीर
पहले की बात और थी
हुआ करते थें
जब तुम्हारे तस्वीर दिल
रख याद करते थे
दिल से
दिल में दर्द लिए
गुजरता था वो पल सबका
हालात अपनी बदल दी
तस्वीर निकाल कर
ई मेल में रख दी।
अब
तुम्हे याद करने के लिए
जाने पड़ते है इंटरनेट कैफे
पहले की बात और थी
हुआ करते थें
जब तुम्हारे तस्वीर दिल
रख याद करते थे
दिल से
दिल में दर्द लिए
गुजरता था वो पल सबका
हालात अपनी बदल दी
तस्वीर निकाल कर
ई मेल में रख दी।
अब
तुम्हे याद करने के लिए
जाने पड़ते है इंटरनेट कैफे
छेनी हथौडे की गिफ्तारी अलोका
छेनी हथौडे की गिफ्तारी
वो अपराध कई बार करता रहा।
.हजार बार करता रहा।
.कानून उसकी कुछ न करती।
.अपनी जुबान बंद कर
गुनहगार बनता रहा।
कई बार करता रहा।
वो अपराध कई बार करता रहा।
.हजार बार करता रहा।
.कानून उसकी कुछ न करती।
.अपनी जुबान बंद कर
गुनहगार बनता रहा।
कई बार करता रहा।
मेरे लिखे
अलोका
“ाब्द पढ़े थे तुने
मन में उठी होगी कोई
क”ाक
बदले मे उद्ववेलित किया था
तुने वो “ाब्द
जिसके सहारे में लिखने लगी थी
प्रेरणा के कविता
उस कविता से
गुजरेगी तुम्हारी निगाहे
हर “ाब्द तुमसे लेेगा बदला
यह सोच कर कि एक पल
आएगा हमारा
दिल और दिमाग में
जब छाएगा वह प्यार
तुम भूल चुके हो तब तक
जब “ाब्दों की प्रवाह से
मैं देती रहूगी तूझे अहसास
शनिवार, 17 जुलाई 2010
चाह और विदाई (अलोका)
चाह और विदाई
कैसा संयोग कि
तुम मुझे दिखते रहें
कई बात करती रहीं
दिल न भरा था
बात का सिलसिला
बनता गया
दिल में क”ाक के साथ
एक पल के लिए
न जाने रि”ता पूरा
पर अनजान बन गया।
कैसा संयोग कि
तुम मुझे दिखते रहें
कई बात करती रहीं
दिल न भरा था
बात का सिलसिला
बनता गया
दिल में क”ाक के साथ
एक पल के लिए
न जाने रि”ता पूरा
पर अनजान बन गया।
व्यथाः मेरी
.अलोका
इतनी व्यस्तता में
व्यथा मेरी तू न सुनता तो
और कौन सुनता
कई बार को”िा”ा की
अपने मन की बातें
तुझसे कहने को
तुम्हारी व्यस्तता ने
दिल से दिल की बात
दरकिनार कर दिया।
त्ुाझे सुनाने की चाहत लिए
विदा हो गयी
तुमसे और तुम्हारे “ाहर से
व्यथा मेरी तू न सुनता तो
और कौन सुनता
कई बार को”िा”ा की
अपने मन की बातें
तुझसे कहने को
तुम्हारी व्यस्तता ने
दिल से दिल की बात
दरकिनार कर दिया।
त्ुाझे सुनाने की चाहत लिए
विदा हो गयी
तुमसे और तुम्हारे “ाहर से
हां मैने चाहा था
02. 06.10 अलोका
. लम्बे दिनों के बाद
.चाह रहीं थी बातें करना।
.गिले ”िाकवे दूर करना
. समय और समझदारी ने
.ऐसा होने नहीं दिया।
.मेरी तमन्ना थी
एक पल कुछ बोल तो दूं।
पब्लिक और प्रेस ने
ऐसा होने नहीं दिया।
.मेरा एकलौता मन
कुछ बाते करना चाह रहा।
आपकी बेचैनी और काम ने
ऐसा होने नहीं दिया।
.दिन ढलता रहा
हम करीब थे।
पर ”िाकायत सुनने का मौका न दिया।
हां मैने चाहा था
पूरा पल आपके पास रहूं
तुमनेे मुझे छूने का मौका ही नहीं दिया।
.चाह रहीं थी बातें करना।
.गिले ”िाकवे दूर करना
. समय और समझदारी ने
.ऐसा होने नहीं दिया।
.मेरी तमन्ना थी
एक पल कुछ बोल तो दूं।
पब्लिक और प्रेस ने
ऐसा होने नहीं दिया।
.मेरा एकलौता मन
कुछ बाते करना चाह रहा।
आपकी बेचैनी और काम ने
ऐसा होने नहीं दिया।
.दिन ढलता रहा
हम करीब थे।
पर ”िाकायत सुनने का मौका न दिया।
हां मैने चाहा था
पूरा पल आपके पास रहूं
तुमनेे मुझे छूने का मौका ही नहीं दिया।
ये लम्हा बीता मेरा
.अलोका
29.06.10
29.06.10
चली थी, मन में
लिए गुस्सा और प्यार दोनो
तब तक
जब तक
न देखी थी मैं तुझे
न थी मन में चाहत उस वक्त तक
.रखी थी सोच कर दिल में
.न मिलूंगी तूझसे
जाने अनजाने
. हो गयी मुलाकात
. किसी मोड़ पर
. थम गया था दिल मेरा
. कुछ देर तक
. और फिर
. मिलने की चाहत दिल को तड़पाने लगी
. वो दिन एहसास
. एक -एक पल
. मेरे लिए थम सा गया।
. बिना सोचे चल दी
. पर
. मेरी निगाहे पूरे रास्ते
. तुझे तला”ाती रही।
. आंखों की तला”ाी के साथ
. दिल बेवाक् बैचन हो गया।
. आपने साथ के साथी के रास्ते
. भी खो दिया
. मन की बैचनी को थामने
. चली गयी उस देहरी तक
. जहां एक सनाटा भरा था।
. निरा”ा निगाहे
. व
. वापसी कदम
. देहरी पार करते ही
. उसका फोन आया
. इंतजार तो कर ले-की बात कह डाला।
. मै इस इतजांत को पल पल जी रही थी।
. उनसे मिलने की तड़प बढ़ रही थी।
. नहीं पता कि उस ओर मैं खींचे
. क्यों जा रही थी?
लिए गुस्सा और प्यार दोनो
तब तक
जब तक
न देखी थी मैं तुझे
न थी मन में चाहत उस वक्त तक
.रखी थी सोच कर दिल में
.न मिलूंगी तूझसे
जाने अनजाने
. हो गयी मुलाकात
. किसी मोड़ पर
. थम गया था दिल मेरा
. कुछ देर तक
. और फिर
. मिलने की चाहत दिल को तड़पाने लगी
. वो दिन एहसास
. एक -एक पल
. मेरे लिए थम सा गया।
. बिना सोचे चल दी
. पर
. मेरी निगाहे पूरे रास्ते
. तुझे तला”ाती रही।
. आंखों की तला”ाी के साथ
. दिल बेवाक् बैचन हो गया।
. आपने साथ के साथी के रास्ते
. भी खो दिया
. मन की बैचनी को थामने
. चली गयी उस देहरी तक
. जहां एक सनाटा भरा था।
. निरा”ा निगाहे
. व
. वापसी कदम
. देहरी पार करते ही
. उसका फोन आया
. इंतजार तो कर ले-की बात कह डाला।
. मै इस इतजांत को पल पल जी रही थी।
. उनसे मिलने की तड़प बढ़ रही थी।
. नहीं पता कि उस ओर मैं खींचे
. क्यों जा रही थी?
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