कुछ अश’आर जो मालूम नहीं बने कि महीं
सर उठाया तो इक बियाबान सा था
दिल-ओ-जिगर से महरूम मैं हैरान सा था
घर को देखा तो दिल पे ये वाक़े हुआ
आज शायद वो कुछ सुनसान सा था
मैं ही इस ख़ाना-ए-हस्ती में अबस
कितना बरबाद सा था कितना पशेमान सा था
जिसने भी देखा मुझे उसी ने कहा
ये शख़्स तो नामुरत्तब दीवान सा था
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें