ख्वाइश की राह पर चले कब थे
हमने रिश्ते को, पोसा, न पाला
स्याह रात को जगे अक्सर
कि हिचकी को पास आना था।
माँ-सी आरज़ू को मुठ्ठी में
लिये नींद से ना जागा था
ऐसे ख़्वाबों के कैसे सज्दे में
कौन सहीफ़े लिए आया था।
कि अल्फाज़ ने तपिश बन कर
पीर पयंबरी को पाया था।
आओ ! इस शादमाँ पल में
चाँद को फिर-फिर बुला लाएँ
कैसे दहकाँ के खेत पसीने में
रह-रह फसल को उगा आएँ।
यही ज़िन्दगी का हासिल है
यही मोहब्बतों का हामिल है!
(सहीफ़े= ईश्वरीय संदेश, पयंबरी=पैगम्बरी, दहकाँ=किसान, शादमाँ=हर्षित, हामिल= धारक )
{साथियो! आपने कल पोस्ट नज़्म को पलकों पर रखा कि मेरी आँख नम हो आयी। उसका यह अंतिम हिस्सा आपको ही समर्पित करता हूँ। }
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