बुधवार, 22 मई 2013
मंगलवार, 21 मई 2013
शर्म की तस्वीर
सिर्फ गोली मारनी चाहिए थी वहां बस जुर्म की तहरीर लिख दी गयी
हर अबला के खाते में सर झुका कर जीने की तकदीर लिख दी गयी।
शर्मसार है इंसानियत हिंदुस्तान की कुछ हैवानों की हैवानियत से
चलती बस को बना कर आइना वहशीपन की तस्वीर लिख दी गयी।
दहेज़ की फ़िक्र में कतराते थे लोग अभी तक बेटियों की पैदाईश से
अब कुछ और वज़ह हो जाएगी, आज कुछ ऐसी नज़ीर लिख दी गयी।
ए बहनों आहिस्ता से निकलना अब शैतानों के शहर में संभल के
कि जाने कब पढ़ने को मिल जाये जो हर गली में एक पीर लिख दी गयी।
अब न चहकेगी कभी वो जो आँगन में चहचाया करती थी रातदिन
उड़ गयी सोनचिरैया आबरू देके, कहानी नहीं चुभता तीर लिख दी गयी।
जब टूटने लगे हौंसला
जब टूटने लगे हौंसला तो बस ये याद रखना;
बिना मेहनत के हासिल तख़्त-ओ-ताज नहीं होते;
ढूढ़ लेना अंधेरे में ही मंजिल अपनी दोस्तों;
क्योंकि जुगनू कभी रोशनी के मोहताज़ नहीं होते
मुझमें ....
मुझमें ....
समय के दोनों हाथ
फैले रहे मेरी तरफ
आ मेरी बच्ची
मेरी बाँहों में आ
मेरे सीने पर धर अपना सिर
मेरी मुट्ठियाँ खोल
मेरी पीठ पर लद जा ..
मैं तेरा पंखों वाला घोडा ..तू मेरी परी
तेरा उड़नखटोला अपने ही मजबूत कंधों पर ले जाऊँगा
मेरी लाड़ली
पर पहले सीख ले
अपने क़दमों पर चलना
मेरी उंगली पकड़ ठीक से
कुछ इस तरह ..
देख ऐसे
कि जब छोडूँ तुझे
तो तू बची रहे
स्मृतियों के बाहर
मुझमें .
सोमवार, 20 मई 2013
उस शाम वो रुख़सत का समाँ याद रहेगा
उस शाम वो रुख़सत का समाँ याद रहेगा
वो शहर, वो कूचा, वो मकाँ याद रहेगा
वो टीस कि उभरी थी इधर याद रहेगा
वो दर्द कि उठा था यहाँ याद रहेगा
हाँ बज़्मे-शबाँ में हमशौक़ जो उस दिन
हम तेरी जानिब निग्रा याद रहेगा
कुछ मीर के अबियत थे, कुछ फ़ैज़ के मिसरे
एक दर्द का था जिन में बयाँ याद रहेगा
हम भूल सकें हैं न तुझे भूल सकेंगे
तू याद रहेगा हमें हाँ याद रहेगा
इब्ने इंशा
सोमवार, 13 मई 2013
बेरोजगार हूँ, इस तंत्र से परेशान हूँ
बेरोजगार हूँ, इस तंत्र से परेशान हूँ
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खाली हूँ
और लोगों को पढ़ने का
काम करता हूँ
आसन्न नींद में डूबे लोगों को
परेशान करता हूँ
मौके - बेमौके
पीड़ितों के दुःख सुख में
शरीक होता हूँ
पर यह सब कोई
काम तो नहीं
इसलिए पूछने पर
खुद के बारे में
कहता हूँ -
बेरोजगार हूँ
इस तंत्र से परेशान हूँ
और बदलाव चाहता हूँ
इस शोषण - परक
भेदभाव - मूलक
भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे
तंत्र से
पर यह कोई काम तो नहीं
इसलिए बेरोजगार हूँ
बेरोजगार हूँ -
कि होती नहीं
चापलूसी मुझसे
नेताओं की, अफसरों की
ठेकेदारों की, साहूकारों की
जो हमारे भविष्य को
अपने पैरों तले
रौंदते रहते हैं
और अपमानित होता रहता है
हमारा स्वाभिमान
बेरोजगार हूँ -
कि होती नहीं
बेईमानी मुझसे
तोडा जाता नहीं
अपनों का विश्वास
बेरोजगार हूँ -
कि चाहता हूँ
अपनी मिट्टी से
लोगों का जुडाव
और सरकार की भी
जो इन दिनों
विदेशी कंपनियों
और उनकी पूंजी देश में
लाने की जोड़-तोड़ में ही
अपना सारा समय
और काबिलियत
खर्च कर रही है
उन्हें मालूम नहीं
हमारी मिटटी की उर्वरता
उसकी मोहक खुशबू
हमारे अपने लोगों का हूनर
आजकल हमारी सरकार को
सभी विदेशी चीजें
अच्छी लगती हैं
विदेशी सरकारों की
हां में हां मिलाना भी
बिना यह सोचे
कि अपने देश का भविष्य
किधर जा रहा है
और पैदा कर रहा है
मुझ जैसे लाखों-करोड़ों
बेरोजगारों की फ़ौज
अकसर लोग पूछते हैं
बसों में, ट्रेन में
चाय के नुक्कडों पर भी
कि मैं क्या करता हूँ
मैं कहता हूँ उनसे
लिखता हूँ - विद्रोही कवितायेँ
व्यवस्था से चिढ़कर - विरोध में
पढता हूँ - वाम साहित्य
बाट जोहता हूँ
सृजन की
पर सृजन के लिए
पुराने का, सड़े-गले का
मिटना जरुरी है
नई कोपलें निकले
इसके लिए मिट्टी में
ख़ाक होना ज़रुरी है
फिर लोग कहते है
यह सब तो ठीक है
पर काम क्या करते हो ?
तब मैं फिर से
आसन्न सन्नाटे में
आ जाता हूँ
और बेशर्मी से
कहता हूँ -
न मैं डाक्टर
न इंजिनीयर
ठीकेदार भी नहीं
न ही सरकारी मुलाजिम
कोई नेता भी नहीं
न किसी का पीए
बस बेरोजगार हूँ
बेरोजगार हूँ
-अकबर इलाहाबादी
पुरानी रोशनी में और नई में फ़र्क़ है इतना
उसे कश्ती नहीं मिलती इसे साहिल नहीं मिलता
दिल में अब नूरे-ख़ुदा के दिन गए
हड्डियों में फॉसफ़ोरस देखिए
मेरी नसीहतों को सुन कर वो शोख़ बोला-
"नेटिव की क्या सनद है साहब कहे तो मानूँ"
नूरे इस्लाम ने समझा था मुनासिब पर्दा
शमा -ए -ख़ामोश को फ़ानूस की हाजत क्या है
बेपर्दा नज़र आईं जो चन्द बीवियाँ
‘अकबर’ ज़मीं में ग़ैरते क़ौमी से गड़ गया
पूछा जो उनसे -‘आपका पर्दा कहाँ गया?’
कहने लगीं कि अक़्ल पे मर्दों की पड़ गया.
गुरुवार, 9 मई 2013
हमने उस बोसा-ए-दिल से
हमने उस बोसा-ए-दिल से
कैसे था रूह को भिगो डाला
तुमने सजाई मांग में बूंदे
फूल का रंग भी चटख आया
ख्वाइश की राह पर चले कब थे
हमने रिश्ते को, पोसा, न पाला
स्याह रात को जगे अक्सर
कि हिचकी को पास आना था।
माँ-सी आरज़ू को मुठ्ठी में
लिये नींद से ना जागा था
ऐसे ख़्वाबों के कैसे सज्दे में
कौन सहीफ़े लिए आया था।
कि अल्फाज़ ने तपिश बन कर
पीर पयंबरी को पाया था।
आओ ! इस शादमाँ पल में
चाँद को फिर-फिर बुला लाएँ
कैसे दहकाँ के खेत पसीने में
रह-रह फसल को उगा आएँ।
यही ज़िन्दगी का हासिल है
यही मोहब्बतों का हामिल है!
(सहीफ़े= ईश्वरीय संदेश, पयंबरी=पैगम्बरी, दहकाँ=किसान, शादमाँ=हर्षित, हामिल= धारक )
{साथियो! आपने कल पोस्ट नज़्म को पलकों पर रखा कि मेरी आँख नम हो आयी। उसका यह अंतिम हिस्सा आपको ही समर्पित करता हूँ। }
हाँ मिला तो मगर मुश्किलों से मिला,
अशोक रावत की ग़ज़लें
हाँ मिला तो मगर मुश्किलों से मिला,
आईनों का पता पत्थरों से मिला.
दोस्ती आ गई आज किस मोड़ पर,
दोस्तों का पता दुश्मनों से मिला.
मौलबी और पंडित घुमाते रहे,
उसका पूरा पता क़ाफ़िरो से मिला.
ढूँढ़ते ढूँढ़ते थक गया अंत में,
मुंसिफ़ों का पता क़ातिलों से मिला.
अड़चनें ही मेरी रहनुमा हो गईं,
मंज़िलों का पता ठोकरों से मिला.
जाने क्या लिख दिया उसने तक़दीर में,
मुझको जो भी मिला मुश्किलों से मिला.
एक एहसास ....
संध्या सिंह
जब ...
एक दूसरे के बीच से
गुज़र कर ....
हमारी उंगलियाँ
कस जाती है ,
तो जड़ जाते हैं
ताले
ज़ुबान को ,
बस........
उंगलियाँ बतियाती है
कुछ अश’आर जो मालूम नहीं बने कि महीं
कुछ अश’आर जो मालूम नहीं बने कि महीं
सर उठाया तो इक बियाबान सा था
दिल-ओ-जिगर से महरूम मैं हैरान सा था
घर को देखा तो दिल पे ये वाक़े हुआ
आज शायद वो कुछ सुनसान सा था
मैं ही इस ख़ाना-ए-हस्ती में अबस
कितना बरबाद सा था कितना पशेमान सा था
जिसने भी देखा मुझे उसी ने कहा
ये शख़्स तो नामुरत्तब दीवान सा था
रविवार, 5 मई 2013
ढलती शामों की घडी का मेरा फैला आकाश
पाब्लो नेरुदा
अनुवाद: खुर्शीद अनवर
ढलती शामों की घडी का मेरा फैला आकाश
उसपे छाई हो ऐसे कोई बादल जैसे
तुम मेरी ज़ात हो, मेरी हो ऐ नाज़ुक लब जाँ
और तेरी ज़ात में शामिल मेरे खवाबों के जहां
रौशनी रूह की मेरे, तेरे क़दमों में ढले
यूँ उतर जायें कि रंगत तेरे पांव सजे
मय की तल्खी बने शीरीं तेरे लब जो छू ले
ऐ मेरे शाम के गीतों को सजाने वाली
तनहा ख्वाबों को यकीं है कि तू मेरी ही है
मैं हवाओं के सुरों में तुझे पा जाता हूँ
तू मेरी है मैं हवाओं से भी कहलाता हूँ
मेरे आँखों में उतर कर करे तू हश्र बपा
शब् की खुशबू यूँ उड़े जैसे मचलता झरना
मेरे संगीत के दामन में सजी है तू जाँ
और यह दामन है कि फैला हुआ अम्बर जैसा
तेरी नम आँखों के सागर का किनारा मेरी रूह
इन्ही नम आँखों से धरती मेरे ख्वाबों की शुरू
शनिवार, 4 मई 2013
भाड़ में जाए शिक्षा-विक्षा
- फ़हमीदा रियाज़
तुम बिल्कुल हम जैसे निकले
अब तक कहाँ छिपे थे भाई
वो मूरखता, वो घामड़पन
जिसमें हमने सदी गँवाई
आखिर पहुँची द्वार तुम्हारे
अरे बधाई, बहुत बधाई।
प्रेत धर्म का नाच रहा है
कायम हिंदू राज करोगे ?
सारे उल्टे काज करोगे !
अपना चमन ताराज़ करोगे !
तुम भी बैठे करोगे सोचा
पूरी है वैसी तैयारी
कौन है हिंदू, कौन नहीं है
तुम भी करोगे फ़तवे जारी
होगा कठिन वहाँ भी जीना
दाँतों आ जाएगा पसीना
जैसी तैसी कटा करेगी
वहाँ भी सब की साँस घुटेगी
माथे पर सिंदूर की रेखा
कुछ भी नहीं पड़ोस से सीखा!
क्या हमने दुर्दशा बनायी
कुछ भी तुमको नजर न आयी?
कल दुख से सोचा करती थी
सोच के बहुत हँसी आज आयी
तुम बिल्कुल हम जैसे निकले
हम दो कौम नहीं थे भाई।
मश्क करो तुम, आ जाएगा
उल्टे पाँव चलते जाना
ध्यान न मन में दूजा आए
बस पीछे ही नजर जमाना
भाड़ में जाए शिक्षा-विक्षा
अब जाहिलपन के गुन गाना।
आगे गड्ढा है यह मत देखो
लाओ वापस, गया जमाना
एक जाप सा करते जाओ
बारंबार यही दोहराओ
'कैसा वीर महान था भारत
कैसा आलीशान था-भारत'
फिर तुम लोग पहुँच जाओगे
बस परलोक पहुँच जाओगे
हम तो हैं पहले से वहाँ पर
तुम भी समय निकालते रहना
अब जिस नरक में जाओ वहाँ से
चिट्ठी-विठ्ठी डालते रहना।
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