मंगलवार, 15 अक्तूबर 2013

क्यों खुद से बेखबर हो?



क्यों खुद से बेखबर हो?

रात के अंधेरों को 
लांघकर तुम
धरती पर नया सवेरा 
ले कर आती हो
तुम्हारे हृदय से निकलने वाली 
अविरल प्रेम की धारा में
मेरे जीवन की कश्ती 
हर बार ठहर जाती है
और
आकाश से गिरकर
पत्तों पर मोती की तरह 
चमचमाते ओस की बूंदों में 
तुम्हारी छवी नजर आती है
कि 
तुम्हारी अधखुली 
पलकों की ओट में 
मेरे ही सपने मंडराते हैं 
और गहरे गहराते हैं
कि 
तुम्हारे ही उम्मीदों की छाया में
मेरे सारे दुख दर्द 
मुस्कुराते हैं,
तुम पतझड़ के पत्तों की तरह
हर रोज झड़ती हो
और 
मेरे नर्इ कपलों की तरह
उग आने और मंद हवाओं के 
संग मुस्कुराने की 
बाट जोहती हो 
निरंतर,
तुम क्षितीज से 
लालिमा लिए उगने वाले
सूरज की किरणों में 
अपनी प्रार्थनाओं के
फूल खिलाती हो
जिसमें मुझे सदा ही 
सफलताओं के बादलों पर
अश्वमेघ के घोड़े 
दौड़ाते रहने 
और
हर जंग में विजयी होने की 
कामनाओं के रस घोलती हो,
तुम निरंतर चलती रहती हो
बियाबान से 
अपने जीवन रूपी जंगल में
धूप, गर्मी, बरसात की तरह
समाज की व्यवस्थाओं की 
मार झेलती हुर्इ, उनसे लड़ती हुर्इ
अपने सख्त हाथों से
खुद के लिए राह बनाती हुर्इ,
तुम खामोश रहती हो
ताउम्र कुछ नहीं बोलती हो
तुम्हारी खामोशी से श्याह
होती शाम की श्याही
से काली रात
तुम्हारे सारे दर्दो के राज
तुम्हारी चुप्पी की तरह 
चुपचाप लिखती है
तुम्हारे सपने कैसे
जन्म लेने के बाद ही
कभी अपने के हाथों 
कभी गैरों के हाथों
कौडि़यों के मोल बिकती है
वो सारे राज वो लिखती है,
तुम बस खुश हो
अपनी गुमनामी के दामन से
आंखों के कोर में छुपे
आशुओं की धार को 
अकेले में चुपचाप पोछती हुर्इ
कि तुम्हारे अंदर 
चलने वाली खूबसूरत नाम लिए
आंधियों को कोर्इ नहीं जानता
कोर्इ नहीं सुनता
मगर तुम्हारे कोख से
जन्मी नर्इ सृषिट
तुम्हे महसूस करती है
तुमसे दूर रहकर भी हर बार
शायद तुम इससे बेखबर हो
जैसे 
तुम अपनी खुशियों की 
तिलांजलि देकर 
अपने आप से बेखबर हो।।

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