शनिवार, 12 अक्तूबर 2013

ये पश्चताप है या विजय उल्लास



ये पश्चताप है या विजय उल्लास 

ऐ रे सखी 
अब ये काजल पाउडर
मुझे बिल्कुल नहीं सुहाते
मेरे चेहरे पर छिड़के तेजाब 
के छींटे
कहो न 
किसी पाउडर से
छुपेंगे
किस मेकअप के पीछे
मैं छुपा सकूंगी 
उनके गुनाह,
ऐ रे सखी 
मुझे मुंह चिढ़ाते हैं ये
ब्यूटी पार्लरों के दीवार
मेरे क्षत-विक्षत 
हो चुके चेहरे
और
मर चुकी 
मेरी गरीमा,मेरा सम्मान
मेरा आत्मविश्वास
कुछ भी तो नहीं लौटा सकते,
ऐ रे सखी 
फिर क्यों
बना लिए हैं बाजार ने
सारी महंगी चीजें
मेरे ही साजो श्रृंगार के 
कि
चुल्हे में झौंसा मेरा मुंह
किसी को न दिखे
कलाइ्र्रयों पर 
गर्म चिमटे की मार
छिप जाए
भरी चुडि़यों की 
खूबसूरती में
और 
भागना जो चाहूं कभी
इस जिल्लत से दूर
तो मेरे पैरों के पायल
रूुन-झुन-रून-झुन कर 
मोहल्ले वालों को जगा दे
ताकि
दूर जाने से पहले
पकड़ ली जाउ
फिर
डाल देने को उसी कैद में
जहां 
आर्थिक स्वतंत्रता न देकर
बना दी जाती हूं 
मैं अपाहिज 
ताकि 
मैं मांगती रहूं ताउम्र भीख
अपने जीने-खाने को
और 
जीती रहूं जिंदगी भर
किसी के सहारे
बंद कर दी जाती हैं जहां 
मेरी जुबान
ताकि 
मैं उनके इशारे पर 
चलती रहूं आखें बंद कर
चुपचाप 
ऐ रे सखी 
सुनो न
कि
सारे ग्रंथ-पुराणों ने भी
तो
इसे ही नारी का
श्रृंगार बता दिया है
कि मैं बना दी गर्इ 
हूं अब देवी
देखो न ये कैसे 
उन्हीं बाजार की चीजों से
कर मेरा सोलह श्रृंगार 
कैसे मुझे पूजते हैं
ऐ रे सखी
मैं देवी बनकर सोच रही हूं
ये समाज का पश्चताप है
या 
विजय उल्लास, क्या है यह?

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