सोमवार, 7 अक्तूबर 2013

TALASH


Jacinta Kerketta 

TALASH
मैं हर दिन उठ कर भागती हूं
घर से बाहर
एक अनजानी खुशी की तलाश में
शहर की गलियों की खाक छानकर
थक कर लौट आती हूं रात को
जैसे कोई चिडि़या शाम को 
लौट आती है
अपने घोसले में हर दिन
वह खुश है कि 
पूरा जंगल उसका है
पूरा आकाश उसका है
और मैं एक अनजाने शहर में
ढूंढती हूं अपनी जमीं, अपना आकाश

चलती हूं हर दिन
हर खेमे से जूझते हुए
कहीं महिला विरोधी खेमा
कहीं जाति विरोधी खेमा
कहीं धर्म विरोधी खेमा
कहीं ईष्र्या और डाह 
लड़ती हूं इंसान की तरह 
बस इंसानियत का साथ पा लेने को,

यहां कुछ भी ठहरा सा नहीं लगता
दौड़ती-भागती हैं सारी चीजें
न जाने कहां रूक जाने को
या निरंतर इसी गति से भागने को
मैं भी भागती हूं 
न जाने कहीं रूक जाने को
या फिर निरंतर भागने को

पर एक ही जगह है 
अपना गांव
जहां पहुंचते ही लगता है
दुनिया रूक जाती है
कुछ थम सा जाता है
शायद मैं या वक्त या लोग
खेत खलिहान या फिर सबकुछ,
न खाने को लेकर हर दिन 
शहर की ओर भागना
न किसी को दिखाने को
हर दिन नये डिजाइन के कपड़े 
की फिक्र करना
जो है बस बहुत है
अपनी जमीन, अपना आकाश
अपनी नदी और अपना जंगल ।

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