बेटी
पांच बेटी की मां
गांदूर टकटकाई पूना के बेटे निहार
इच्छा के छन को मन की र्दद लिए
बेटे ना होने का दुख खूद को कोसती
खेतो में हल कौन चलाएगा बोल हलका
मन को कर लेती
बुढापे में कमाकर कौन खिलाएगा
अंतिम संस्कार तक कौन होगा
जैसे सवालो से मन भरी चेहरे में उदासी के पल
हर घर से पूछते है बच्चों के हाल
“ाब्दों मे व्यर्थ और आखों नम
स्वर में उदासीता के जबाब होते
समाज के समक्ष कुछ बोलकर
बदलाव के धुन कानों में सुनते रहे
अंदर घरों में वही निमय
जरूरत ने दामन को आजाद किया
म”ाीनी युग ने बेटी को पहचांन दी
घर की चाहत ने सम्मान पर कसक
चाहत की थी चाहत बदलाव की थी
बदलते समाज स्वर और बढ़ते भेद ने
कसौटी पर बेटी को जगह दिया पर आजादी छिन्न ली
संस्कार वही मन की चाहत उसकी अकेले नहीं
सस्ती श्रम और सेवा के आगे
दौड लगा रही लिंग भेद के हवा
बेहतर और चाहत के बीच
परम्पराओं के धीरे हुए आज भी है बेटी
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