बुधवार, 7 सितंबर 2016

घटता जाए जंगल (तीर्थ नाथ आकाश )

घटता जाए जंगल
बढ़ता जाए जंगलराज
और हाथ पर हाथ धरे
बैठा है सभ्य समाज ।

क्या सोचा था और
हुआ क्या, क्या से क्या निकला
फूलों जैसा लोकतन्त्र था,
काँटों में बदला
चली गोला में निर्दोष
ग्रामीणों पर गोलियां ।
खेतों पर कब्ज़ा मॉलों का
उपजे कहाँ अनाज ?
क्या भाषा, क्या संस्कृति
अवगुणता का हुआ विकास
कड़वी लगे शहद, मीठी
पत्तियाँ नीम की आज !

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