सोमवार, 29 अगस्त 2016

’’ सरई - बीज सवारी ’’ (ओली मिंल )


मादक बयार संग
किर - किर करती
सरई - बीज सवारी
कभी
फरफराते पत्तों संग गीत गाकर
डार की चिडि़यों को हँसा जाती है
कभी
उन्हीं डारियों से टकराकर
घायल हो जाती है
कभी
पोखरा - जल से उपलकर
चैकड़ी भरती मछलियों को
ललचा जाती है
कभी
नदी - धार संग बहकर
अन्जाने सफर को निकल पड़ती है 
कभी 
पुटूस झाडि़यों में उलझकर 
अपने भाग्य को कोसती है
कभी
कीचड़ में फसंकर
घुट - घुटकर रह जाती है
कभी
औ’ाधालयों में पहुँचकर
“ाोध का विषय बन जाती है
कभी
चरवाहा बच्चों को ललचाकर
खेल का विषय बन जाती है
कभी
भूखों का भोजन बनकर
दुआएँ बटोर लेती है
कभी
खुद भोजन के अभाव में सूखकर
कांटा हो जाती है
कभी
तपती धूप में झुलसकर
मुरझा जाती है
कभी 
सूखे पत्तों की गठरी में समाकर 
जलावन बन जाती है
कभी
जुते हुए खेतों में गिरकर 
खाद बन जाती है
कभी
अंकुरण की होड़ में चाहकर भी
हार जाती है
“ोष
सरई - बीज 
नैसर्गिक वातावरण में 
अंकुर पाते हैं अगर
तो  उन्हें 
रौंदे जाने का खतरा
सताता रहता है.

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