मंगलवार, 4 नवंबर 2008

दामिन-इ-कोह की।

दामिन-इ-कोह की।
जीवन एक सुत्र में बंधा था ।
भूल जाऐगे- जंगत के र्दद
बन कर रहेगें राजा-रानी
जंगल के साथ।
कंठ से निकलते मधुर गीत।
स्वपन सुखी समृद्ध समाज का
दिनचर्या होती शुरू।
मुर्गी की बांग से।
जंगल में पैर ना रखा हो इंसान
हुआ था तैयार घने जंगल में
घास- पूस,दीवारो का छोटा सा
गाव संथाल का।
रंग -बिरगी जंगली जानकरों
फूलो तितली के चित्र।
मेहनत खुले आसमान के नीचे
कंद मूल इकट्ठ कर।
शाम को घर को लौटते।
जो मिला खाकर भूख शांत करते।
शुरू होता समूह में गाना, बजाना।
फिर आराम।
कहां गया?
दामिन-इ-कोह के अपना राज।

मूढ़ी का पाइला।

लगती है अच्छी
मूढ़ी वाली
चार पाइला मूढ़ी के बाद
भरी पोलोथिन मूढ़ी में
उपर से डाल देती है
एक मूट्ठी मूढ़ी
हालाकि यह चगनी मंगनी है
कि चार पाइला
मूढ़ी में थोड़ा हिल जाने पर
कुछ मूढि.यां गिर जाती है
ऐसा नही है
पाइला का माप कम हो जाता
फिर भी वो डाल देती है
उस पोलोथिन में मुट्ठी भर मूढ़ी
जैसे विवाह के बाद
बेटी की विदाई के वक्त
मां मुट्ठी भी चावल, हल्दी और दूब
खेाइछा देती है बांध
यह थोडा सा नहीे होता हैंइसमे
प्यार आत्मीयता
गर्माहट और
‘’ाुभकामनाओं का
अनन्त संसार होता है
मुट्ठी भर प्यार
मुट्ठी भर गर्माहट
बस अब
मुट्ठी भर अच्छे लोग।
खजूर की चटाई।
नानी के गांव में
खजूर क पत्ते
और उसकी चटाई
आज जीवित है
सदियों के बाद सर्दियों में
ओढ़ने बिछाने के लिए
मेहमानों के स्वगत के लिए
सम्मान पूर्व बैठने के लिए
आंधी तूफान में खोजते खजूर की चट्टाई
बरसात की झड़ी में
ढ़कने के लिए है मात्र
खजूर की चटाई।
चटाई हर किसी के पास
खलिहान में बैठने की इच्छा
चटाई मिट्टी के उपर डाल
इतमिनान से बुढ़ी औरतें
जीवन को गाते- सुनाते
खजूर के पेड के पत्ते से अनुभव
शहर वापस आते वक्त
चटाई की सुगन्ध
महसूस करते है हम
खजूर की चट्टाई
दिसंबर की रात
जाड़े के साथ
नानी पास होती
खजूर की चटाई
ढ़क कर हमें सुलाती
कंप कपी के ठंड़
बढ़ता था रातों कों
चूल्हे पर लकड़ी
जला कर ठंड से
लडाई,
साथ में खजूर की चट्टाई
आंधी रात को
गांव के सब लोगों ने
खजूर की पत्ती के साथ
जीवन जीना सीख लिया था।
जब मै बड़ी हो गयी
याद करते है।
अपने नानी घर कि कथा
महसूस करते
उस गांव के मुगी- मुर्गी।

पक्षी और घास के दिन
बेल आम कि महक याद आती है।
याद आती है खजूर की चटइ


प्राकृति
प्राकृति से लगाव।
इसका अर्थ दुसरा है।
मैं प्राकृति के धुन
और गीत सुनती हूं।
झरने चलते जाते हैं।
छोडते जाते है शब्द ।
तान होती उसमें
गुजरते है जहां से
वातावरण जाता है।
बदल-बदल सा
हर मोड पर
सभी के लिए।
धुन और तान एक समान है।
हवा भी साथ में
तान मिलाती है
मानों पत्थर पर टकरा कर नये
सुर ताल बिखेर रहे हो।
लगता है मांदल पर
किसी ने कम्पन्न
पैदा कर दी हो।
पक्षी भी अपने
स्वर रोक नही पाते।
हर कोई की अपनी वाणी।
पिरोये होते सुर में ।
वृक्ष भी इस तान से
दुर नही रह पाता ।
मानों समूह के साथ
अपना स्वर मिला रहा
झिंगूर(कीडे+) भी धरती के
अन्दर स्वर मिलाते है।
जब पूरी वादी एक साथ
झुमर गीत का तान छेड चुका हो
हर कोई अपनी उपस्थिति दर्ज
वहां करा जाते है
यह भी एक युद्ध जैसा ही है।
वे अपने गीतों के माघ्यम से
एकता का ऐलान कर रहा।

सन्नाटा ( अलोका)

1सन्नाटा पसरा उस रात ।
थम गयी हो खमोशी
जैसे नरेंद्र मोदी का गुजरात।
दिसंबर की रात,
था घुप अंधेरा,
च्ेाहरे पर था कई चेहरा
2लम्बे समय तक सिर्फ
खौफ, खमोशी और सन्नाटा
काली रात भी विलखती रही
सड़कों पर न जाने क्या-क्या सुलगती रही
हां, था
वो हमारा गुजरात
सन्नाटे में जलती रही रात
3चीख औरतों की
बच्चे गुम हुए औरतों की
सूरज भी बिलखता रहा
और
मां की ला’ा पे’ सिसक कर
सो गया माहताब
हां वही था
हमारा गुजरात


कमसीन बनी श्रमशील।
नया राज्य
पर
जीवन रूका -रूका सा
दिमाग खाली पड़ी
कमसीन बनी श्रमशील
नगे पंाव
चुडा के पोटली
मट मैले कपडे+।
मन में आकंाक्षा।
सब पर भारी भूख
चली ट्रेन से
सूखे आंेठो को
आंसू से भींगाते
कल की चिन्ता महानगर की गली
काम की तलाश
भटकन और भटकन अन्ततः वही जूठन
की सफाई
खेतों- वनों की कुमारी रानी, बेटी, माई
कमसीन
बनी रेजा- कुली- मेहरी
दाई बस
श्रम बेचने वाली श्रम’ाील


नये हस्ताक्षर।

युग का परिवर्तन हुआ
कार्य में सृजन हुआ
एक लम्हा उसके लिए
सिर्फ नये हस्ताक्षर में
विकट परिस्थिति
सहयोगात्मक भाव
निराला इस दुनिया में
घर के रसोई से
कलम भी बोलने लगे
स्त्री चरित्र पर
नये हस्ताक्षर होने लगे
इस युग का गाथा
बेड रूम के मेज
पर सजने लगे
अपने सृजन को
शब्दों को बदला
नये युग में
विचारों को जोड़ा
स्त्री की व्यथ
स्त्री ने ही लिख डाला।
जीवन की कसौटी में
खड़े.किए
नये हस्ताक्षर

दिल्ली में हैं झाड़खण्ड। (अलोका )

श्रमशील
दिल्ली में
ठोकर खा रहे
फुटपाथ पर
झाड़खण्ड का भविष्य
घर छोड.ने पर किया मजबूर ।
गिरतेेे- पड़तेे जी रहे है।
अपनो से दूर
गुम हो रहे है सपने ।
दिल्ली के गलियों में
अपनी ही लोगो से
लूट रही परम्परा; संस्कृति
बस बाजार में।
खो जाती है बड़े नगरो में
बेचती है अपना श्रम
पुछते है आस-पास के लोग
कहते है ............
दिल्ली में है झाड़खण्ड।