बुधवार, 7 सितंबर 2016

कैसे करबा याद बिरसा आबा के (तीर्थ नाथ "आकाश")

ये रचना हिन्दी में आलोका की है इसका खोरठा में रूपांतरण तीर्थ नाथ "आकाश" ने की है
कैसे करबा याद बिरसा आबा के
सिराय गेलय सब धार
सिराय देलथिन सब ज्जबात
कैसे करबा याद बिरसा आबा के
बेच देलथिन उनखर पहाड़
बेच देलथिन उनखर हवा
उजायड़ देलथिन उनखर बोनवा
कैसे करबा याद बिरसा आबा के
नाय मानबय आबा अबरी
फुलेक माला आर टोकरी से
नाय मानबय अबरी भेड़िया धसान भीड़ से
पुछबय आबा अबरी सबसे
हमनिक बूढ़ा बुजूर्ग के घरेक हाल
उ गाछ कर कहानी
पुछबय आबा
दिये हतय हिसाब
उ सब लोक के
जे जे उलगुलान के बेचल हथीन
जे जे बिरसा आबा के करम के बेचल हथीन€.
------------तीर्थ नाथ "आकाश"

जल-#जंगल- #जमीन (Aloka)

जितनी लम्बी 
हमारी नदियां 
उतना लम्बा 
हमारा इतिहास

जितना उंचा 
हमारा पहाड़ 
उतनी उंची 
हमारी संस्कृति
जितना घंना 
हमारा जंगल
उतना घना
हमारा विशवास
जितना कोमल 
हमारा पलाश  
उतनी मिटठी 
हमारी वाणी
जितने फूटे 
हमारे झरने
उतनी सुन्दर 
हमारी तान
जितने नगाड़
उतनी उंचा एलान
जितना थीरका गांव
उतना एकता भाव
जितना लाल 
हमारी मिट्टी 
उतना मजबूत 
हमारा काम
जितना लम्बी 
हमारी पगड़डी 
उतनी लम्बी हमारा संघर्ष

घटता जाए जंगल (तीर्थ नाथ आकाश )

घटता जाए जंगल
बढ़ता जाए जंगलराज
और हाथ पर हाथ धरे
बैठा है सभ्य समाज ।

क्या सोचा था और
हुआ क्या, क्या से क्या निकला
फूलों जैसा लोकतन्त्र था,
काँटों में बदला
चली गोला में निर्दोष
ग्रामीणों पर गोलियां ।
खेतों पर कब्ज़ा मॉलों का
उपजे कहाँ अनाज ?
क्या भाषा, क्या संस्कृति
अवगुणता का हुआ विकास
कड़वी लगे शहद, मीठी
पत्तियाँ नीम की आज !